कि रेणुका नाराज़ हो गयी और अमरकान्त को भी बुरा मालूम हुआ। वह इस अभाव में भी उस पर शासन कर रही थी।
रेणुका के जाने के बाद अमरकान्त सोचने लगा--रुपये-पैसे का कैसे प्रबन्ध हो? यह समय की पाठशाला का था। वहाँ जाना लाज़मी था। सुखदा अभी सबेरे की नींद में मग्न थी, और नैना चिन्तातुर बैठी सोच रही थी--कैसे घर का काम चलेगा। उसी वक्त अमर पाठशाले चला गया; पर आज वहाँ उसका जी बिलकुल न लगा। कभी पिता पर क्रोध आता, कभी अपने आप पर। उसने अपने निर्वासन के विषय में डाक्टर साहब से कुछ न कहा। वह किसी की सहानुभूति न चाहता था। आज अपने मित्रों में से वह किसी के पास न गया। उसे भय हुआ लोग उसका हाल सुनकर दिल में यही समझेंगे, मैं उनसे कुछ मदद चाहता हूँ।
दस बजे घर लौटा, तो देखा सिल्लो आटा गूंध रही है और नैना चौके में बैठी तरकारी पका रही है। पूछने की हिम्मत न पड़ी, पैसे कहाँ से आये। नैना ने आप ही कहा--सुनते हो भैया, आज सिल्लो ने हमारी दावत की है। लकड़ी, घी, आटा, दाल, सब बाज़ार से लाई है। बरतन भी किसी अपनी जान-पहचान के घर से माँग लाई है।
सिल्लो बोल उठी--मैं दावत नहीं करती हूँ। मैं अपने पैसे जोड़कर ले लूँगी।
नैना हँसती हुई बोली--यह बड़ी देर से मुझसे लड़ रही है। यह कहती है--मैं पैसे ले लूँगी। मैं कहती हूँ--तू तो दावत कर रही है। बताओ भैया, दावत ही तो कर रही है?
'हाँ और क्या ! दावत तो है ही।'
अमरकान्त पगली सिल्लो के मन का भाव ताड़ गया। वह समझती है, अगर यह न कहूँगी, तो शायद यह लोग उसके रुपयों की लाई हुई चीज़ लेने से इनकार कर देंगे।
सिल्लो का पोपला मुँह खिल गया। जैसे वह अपनी दृष्टि में कुछ ऊँची हो गई है, जैसे उसका जीवन सार्थक हो गया है। उसकी रूप-हीनता और शुष्कता मानो माधुर्य में नहा उठी। उसने हाथ धोकर अमरकान्त के लिए लोटे का पानी रख दिया, तो पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे।
११८ | कर्मभूमि |