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आदमियों से उसकी जान पहचान हो गई है, कितने ही उसके सहायक हो गये हैं, कितने ही भक्त बन गये हैं। नगर का सुकुमार युवक दुबला तो हो गया है; पर धूप और लू, आँधी और वर्षा, भूख और प्यास सहने की शक्ति उसमें प्रखर हो गयी है। भावी जीवन की यही उसकी तैयारी है, यही तपस्या है। वह ग्रामवासियों की सरलता और हृदयता, प्रेम और सन्तोष से मुग्ध हो गया है। ऐसे सीधे-सादे, निष्कपट, मनुष्यों पर आये दिन जो अत्याचार होते रहते हैं, उन्हें देखकर उसका खून खौल उठता है। जिस शान्ति की आशा उसे देहाती जीवन की ओर खींच लाई थी, उसका यहाँ नाम भी न था । घोर अन्याय का राज्य था और अमर की आत्मा इस राज्य के विरुद्ध झण्डा उठाये फिरती थी।

अमर ने नम्रता से कहा--मैं जात-पाँत नहीं मानता, माताजी! जो सच्चा है, वह चमार भी हो, तो आदर के योग्य है; जो दगाबाज, झुठा, लम्पट हो, वह ब्राह्मण भी हो तो आदर के योग्य नहीं। लाओ, लकड़ियों का गट्ठा मैं लेता चलूँ।

उसने बुढ़िया के सिर से गट्ठा उतारकर अपने सिर पर रख लिया।

बुढ़िया ने आशीर्वाद देकर पूछा--कहाँ जाना है बेटा?

'यों ही माँगता-खाता हूँ माता, आना-जाना कहीं नहीं है। रात को सोने की जगह तो मिल जायगी?'

'जगह की कौन कमी है भैया, मन्दिर के चौतरे पर सो रहना। किसी साधु-सन्त के फेर में तो नहीं पड़ गये हो? मेरा भी एक लड़का उनके जाल में फँस गया। फिर कुछ पता न चला। अब तक कई लड़कों का बाप होता।'

दोनों गाँव में पहुँच गये। बुढ़िया ने अपनी झोपड़ी की टट्टी खोलते हुए कहा--लाओ, लकड़ी रख दो यहाँ। थक गये हो, थोड़ा-सा दूध रखा है, पी लो। और सब गोरू तो मर गये बेटा! यही गाय रह गयी है। एक पाव भर दूध दे देती है। खाने को तो पाती नहीं, दूध कहाँ से दे।

अमर ऐसे सरल स्नेह के प्रसाद को अस्वीकार न कर सका। झोपड़ी में गया, तो उसका हृदय काँप उठा। मानो दरिद्रता छाती पीट-पीटकर रो रही है। और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है। उसे रहने को बँगला चाहिए, सवारी को मोटर। इस संसार का विध्वंस क्यों नहीं हो जाता?

१४२ कर्मभूमि