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मेहमानी करूँगी बेटा ? रूखी रोटियाँ भी कोई मेहमानी है ? न दारू, न शिकार।'

'मैं तो दारू शिकार छूता भी नहीं काकी।'

अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिये ज्यादा आग्रह न किया। बुढ़िया को और दुःख होता। दोनों खाने लगे। बुढ़िया यह बात सुनकर बोली--इस उमिर में तो भगतई नहीं अच्छी लगती बेटा? यही तो खाने-पीने के दिन है। भगतई के लिये तो बुढ़ापा है ही।

'भगत नहीं हूँ काकी। मेरा मन नहीं चाहता।'

'माँ-बाप भगत रहे होगे।'

'हाँ, वह दोनों जने भगत थे।'

'अभी दोनों हैं न?'

'अम्मा तो मर गयीं, दादा हैं। उनसे मेरी नहीं पटती।'

'तो घर से रूठकर आये हो?'

'एक बात पर दादा से कहा-सुनी हो गयी। मैं चला आया।'

'घरवाली तो है न?'

'हाँ, वह भी है।'

'बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। कभी चिट्ठी-पत्री लिखते हो?'

'उसे भी मेरी परवाह नहीं है काकी? बड़े घर की लड़की है। अपने भोग विलास में मगन है। मैं कहता हूँ, चल किसी गाँव में खेती-बारी करें। उसे शहर अच्छा लगता है।'

अमरकान्त भोजन कर चुका, तो अपनी थाली उठा ली और बाहर आकर माँजने लगा। सलोनी भी पीछे-पीछे आकर बोली--तुम्हारी थाली मैं माँज देती, तो छोटी हो जाती?

अमर ने हँसकर कहा--तो मैं अपनी थाली माँजकर छोटा हो जाऊँगा?

'यह तो अच्छा नहीं लगता कि एक दिन के लिये कोई आया तो थाली माँजने लगे। अपने मन में सोचते होगे, कहाँ इस भिखारिन के घर ठहरा।'

अमरकान्त के दिल पर चोट न लगे, इसलिए वह मुसकराई।

उसने थाली धोकर रख दी और दरी बिछाकर ज़मीन पर लेटने ही जा रहा था, कि पन्द्रह बीस लड़कों का एक दल खड़ा हो गया । दो-तीन

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कर्मभूमि