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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१७२

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रहते ही नहीं हो। मदरसा क्या बनने लगा, तुम्हारे दर्शन ही दुर्लभ हो गये। मैं डरती हूँ, कहीं तुम सनक न जाओ।

'मैं तो दिन भर यहीं रहता हूँ, तुम अलबत्ता जाने कहाँ रहती हो। आज यह सब आदमी कहाँ चले गये? एक भी नहीं आया।'

'गाँव में है ही कौन!'

'कहाँ चले गये सब?'

'वाह! तुम्हें खबर ही नहीं? पहर रात सिरोमनपुर के ठाकुर की गाय मर गई, सब लोग वहीं गये हैं। आज घर-घर सिकार बनेगा।'

अमर ने घृणा-सूचक भाव से कहा--मरी गाय?

'हमारे यहाँ भी तो खाते हैं, यह लोग।'

'क्या जाने। मैंने कभी नहीं देखा। तुम तो...'

मन्नी ने घृणा से मुँह बनाकर कहा--मैं तो उधर ताकती भी नहीं।

'समझाती नहीं इन लोगों को?'

'उँह। समझाने से माने जाते हैं, और मेरे समझाने से!'

अमरकान्त की वंशगत वैष्णव-वृत्ति इस घृणित, पिशाच-कर्म से जैसे मतलाने लगी। सचमुच मतली हो आयी। उसने छूत-छात और भेद-भाव को मन से निकाल डाला था; पर अखाद्य से वही पुरानी घृणा बनी हुई थी। और वह दस-ग्यारह महीने से इन्हीं मुरदाखोरों के घर भोजन कर रहा है।

'आज मैं खाना नहीं खाऊँगा मुन्नी।'

'मैं तुम्हारा भोजन अलग पका दूँगी।'

'नहीं मुन्नी! जिस घर में वह चीज़ पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायगा।'

सहसा शोर सुनकर अमर ने आँखें उठायीं, तो देखा कि पन्द्रह-बीस आदमी बाँस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे हैं।

कितना वीभत्स दृश्य था। अमर वहाँ खड़ा न रह सका। गंगातट की ओर भागा।

मुन्नी ने कहा--तो भाग जाने से क्या होगा। अगर बुरा लगता है तो जाकर समझाओ।

'मेरी बात कौन सुनेगा मुन्नी?'

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कर्मभूमि