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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१७९

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हूँ। तुम मेरा इतना दुलार करोगी मुन्नी, तो मैं आलसी हो जाऊँगा। आओ तुम्हें हिन्दू देवियों की कथा सुनाऊँ।

'कोई कहानी है क्या?'

'नहीं, कहानी नहीं है, सच्ची बात है।'

अमर ने मुसलमानों के हमले, क्षत्राणियों के जौहर और राजपूत वीरों के शौर्य की चर्चा करते हुए कहा--उन देवियों को आग में जल मरना मंजूर था पर यह मंजूर न था, कि परपुरुष की निगाह भी उन पर पड़े। अपने नाम पर मर मिटती थीं। हमारी देवियों का यह आदर्श था। आज यूरोप का क्या आदर्श है? जर्मन सिपाही फ्रांस पर चढ़ आये और पुरुषों से गाँव खाली हो गये, फ्रांस की नारियाँ जर्मन सैनिकों और नायकों ही से प्रेम क्रीड़ा करने लगीं।

मुन्नी नाक सिकोड़कर बोली--बड़ी चंचल है सब; लेकिन उन स्त्रियों से जीते जी कैसे जला जाता था?

अमर ने पुस्तक बन्द कर दी--बड़ा कठिन है मुन्नी! यहाँ तो जरा सी चिनगारी लग जाती है, तो बिलबिला उठते हैं। तभी तो आज सारा संसार उनके नाम के आगे सिर झुकाता है। मैं तो जब यह कथा पढ़ता हूँ तो रोयें खड़े हो जाते हैं। यही जी चाहता है, कि जिस पवित्र भूमि पर उन देवियों की चिताएँ बनीं उसकी राख सिर पर चढ़ाऊँ, आँखों में लगाऊँ और वहीं मर जाऊँ।

मुन्नी किसी विचार में डूबी भूमि की ओर ताक रही थी।

अमर ने फिर कहा--कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता था, कि पुरुषों को घर के माया-मोह से मुक्त करने के लिये स्त्रियाँ लड़ाई के पहले ही जौहर कर लेती थीं। आदमी को जान इतनी प्यारी होती है, कि बूढ़े भी मरना नहीं चाहते! हम नाना कष्ट झेलकर भी जीते हैं। बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा भी जीवन का मोह नहीं छोड़ सकते; पर उन देवियों के लिए जीवन खेल था।

मन्नी अब भी मौन खड़ी थी। उसके मुख का रंग उड़ा हुआ था, मानो कोई दुस्सह अन्तर्वेदना हो रही हो।

अमर ने घबड़ाकर पूछा--कैया जी है मुन्नी? चेहरा क्यों उतरा हुआ है?

कर्मभूमि
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