कथा थी, उस उज्ज्वल बलिदान की जिसकी संसार के इतिहास में कहीं मिसाल नहीं है, जिसे पढ़कर आज भी हमारी गरदन गर्व से उठ जाती है। जीवन को किसने इतना तुच्छ समझा होगा! मर्यादा की रक्षा का ऐसा अलौकिक आदर्श और कहाँ मिलेगा? आज का बुद्धिवाद उन वीर माताओं पर चाहे जितना कीचड़ फेंक ले, हमारी श्रद्धा उनके चरणों पर सदैव सिर झुकाती रहेगी।
मुन्नी चुपचाप खड़ी अमर के मुख की ओर ताकती रही। मेघ का वह अल्पांश जो आज एक साल हुए उसके हृदय-आकाश में पक्षी की भाँति उड़ता हुआ आ गया था, धीरे-धीरे सम्पूर्ण आकाश पर छा गया था। अतीत की ज्वाला में झुलसी हुई कामनाएँ इस शीतल छाया में फिर हरी होती जाती थीं। वह शुष्क जीवन उद्यान की भाँति सौरभ और विकास से लहराने लगा है। औरों के लिए तो उसकी देवरानियाँ भोजन पकाती, अमर के लिए वह खुद पकाती, बेचारे दो तो रोटियाँ खाते हैं, और यह गँवारिनें मोटे-मोटे लिट्ट बनाकर रख देती हैं। अमर उससे कोई काम करने को कहता, तो उसके मुंह पर आनन्द की ज्योति-सी झलक उठती। वह एक नये स्वर्ग की कल्पना करने लगती--एक नये आनन्द का स्वप्न देखने लगती।
एक दिन सलोनी ने उससे मुसकराकर कहा--अमर भैया तेरे ही भाग से यहाँ आ गये मुन्नी। अब तेरे दिन फिरेंगे।
मुन्नी ने हर्ष को जैसे मुट्ठी में दबाकर कहा--क्या कहती हो काकी? कहाँ मैं कहाँ वह। मुझसे कई साल छोटे होंगे। फिर ऐसे विद्वान् ऐसे चतुर! मैं तो उनकी जूतियों के बराबर भी नहीं।
काकी ने कहा--यह सब ठीक है मुन्नी, पर तेरा जादू उनपर चल गया है, यह मैं देख रही हूँ। संकोची आदमी मालूम होते हैं, इससे तुझसे कुछ कहते नहीं, पर तू उनके मन मे समा गयी है, विश्वास मान। क्या तुझे इतना भी नहीं सूझता? तुझे उनकी सरम दूर करनी पड़ेगी।
मुन्नी ने पुलकित होकर कहा--तुम्हारी असीस है काकी, तो मेरा मनोरथ भी पूरा हो जायगा।
मुन्नी एक क्षण अमर को देखती रही, तब झोपड़ी में जाकर उसकी खाट निकाल लायी। अमर का ध्यान टूटा। बोला--रहने दो अभी बिछाये लेता