नहीं देखा और न एक कलमा भी ऐसा मुँह से निकला, जिससे छिछोरपन की बू आई हो। उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी! मैंने उसे मंजूर कर लिया। जब तक वह खुद उस दावत को रद्द न कर दें, मैं उनकी पाबन्द हूँ, चाहे मुझे उम्र भर यों ही रहना पड़े। चार-पाँच बार की मुख्तसर मुलाक़ातों से मुझे उन पर इतना एतबार हो गया है कि मैं उम्र भर उनके नाम पर बैठी रह सकती हूँ। मैं अब पछताती हूँ, कि क्यों न उनके साथ चली गयी। मेरे रहने से उन्हें कुछ तो आराम होता! कुछ तो उनकी खिदमत कर सकती। इसका तो मुझे यक़ीन है कि उन पर रंग-रूप का जादू नहीं चल सकता। हूर भी आ जाय, तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर न देखेंगे, लेकिन खिदमत और मुहब्बत का जादू उन पर बड़ी आसानी से चल सकता है। यही खौफ़ है। मैं आपसे सच्चे दिल से कहती हूँ बहन, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात नहीं हो सकती कि आप और वह फिर मिल जायँ, आपस का मनमुटाव दूर हो जाय। मैं उस हालत में और भी खुश रहूँगी। मैं उनके साथ न गयी, इसका यही सबब था; लेकिन बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ--
वह चुप होकर सुखादा के उत्तर का इंतजार करने लगी। सुखदा ने आश्वासन दिया-- तुम जितनी साफ़-दिली से बातें कर रही हो, उससे अब मुझे तुम्हारी कोई बात भी बुरी न मालूम होगी। शौक़ से कहो।
सकीना ने धन्यवाद देते हुए कहा--अब तो उनका पता मालूम हो गया है, आप एक बार उनके पास चली जायँ। वह खिदमत के ग़ुलाम हैं और खिदमत से ही आप उन्हें अपना सकती हैं।
सुखदा ने पूछा--बस, या और कुछ?
'बस, और मैं आपको क्या समझाऊँ, आप मुझसे कहीं ज्यादा समझदार है।'
'उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं ऐसे कमीने आदमी की खुशामद नहीं कर सकती। अगर आज मैं किसी मर्द के साथ भाग जाऊँ, तो तुम समझती हो, वह मुझे मनाने जायँगे? वह शायद मेरी गरदन काटने जायँ। मैं औरत हूँ, और औरत का दिल इतना कड़ा नहीं होता; लेकिन उनकी खुशामद तो मैं मरते दम तक नहीं कर सकती।'
यह कहती हुई सुखदा उठ खड़ी हुई। सकीना दिल में पछताई कि क्यों
१९८ | कर्मभूमि |