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ओर देखा, मानो पूछ रहे हों--चलते हो, या अभी सोचना बाक़ी हैं ? और फिर शान्त हो गये। साहस ने चूहे की भाँति बिल से सिर निकालकर फिर अन्दर खींच लिया।

नैना के पास वाली बुढ़िया ने कहा--अपना मन्दिर लिये रहें, हमें क्या करना है।

नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को सँभाला--मन्दिर किसी एक आदमी का नहीं है।

शांतिकुमार ने गूंजती हुई आवाज़ में कहा--कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने?

बुढ़िया ने सशंक होकर कहा--क्या अन्दर कोई जाने देगा?

शांतिकुमार ने मुट्ठी बांधकर कहा--मैं देखूंगा कौन नहीं जाने देता। हमारा ईश्वर किसी की संपत्ति नहीं है, जो सन्दूक में बन्द करके रखा जाय। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।

कई सौ स्त्री पुरुष शांतिकुमार के साथ मन्दिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा; पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहाँ हाते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भाँति-भाँति की शंकाएँ भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।

ज्यो-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था, और लोग आ-आकर मिलते जाते थे; पर ज्यों-ज्यों मन्दिर समीप आता था लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से वे सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दुःख था, मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहाँ न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देनेवाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमा कर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।

जत्था मन्दिर के सामने पहुँचा, तो दस बज गये थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियाँ लिये द्वार पर खड़े थे। लाला समरकांत भी पैंतरे बदल रहे थे।

नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम

कर्मभूमि २०७