पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

नैना ने उसके गले से लिपटकर सूजी हुई लाल आँखों से मुस्कराकर कहा--नहीं रोऊँगी भाभी!

अगर मैंने सुना कि तुम रो रही हो, तो मैं अपनी सजा बढ़वा लूंगी।'

'भैया को तो यह समाचार देना ही होगा?'

'तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करना। अम्मा को समझाती रहना।'

'उनके पास कोई आदमी भेजा गया या नहीं!'

'उन्हें बुलाने से और देर ही तो होती। घण्टों न छोड़तीं।'

'सुनकर दौड़ी आयेंगी।'

'हाँ, आयेंगी तो; पर रोयेंगी नहीं। उनका प्रेम आँखों में है। हृदय तक उसकी जड़ नहीं पहुँचती।'

दोनों द्वार की ओर चली। नैना ने लल्लू को माँ की गोद से उतारकर प्यार करना चाहा; पर वह न उतरा। नैना से बहुत हिला था; पर आज वह अबोध आँखों से देख रहा था--माता कहीं जा रही है। उसकी गोद से कैसे उतरे। उसे छोड़कर वह चली जाय, तो बेचारा क्या कर लेगा?

नैना ने उसका चुम्बन लेकर कहा--बालक बड़े निर्दयी होते हैं।

सुखदा ने मुस्कराकर कहा-लड़का किसका है!

द्वार पर पहुँचकर फिर दोनों गले मिलीं। समरकान्त भी ड्योढ़ी पर खड़े थे। सुखदा ने उनके चरणों पर सिर झुकाया। उन्होंने काँपते हुए हाथों से उसे उठाकर आशीर्वाद दिया। फिर लल्लू को कलेजे से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे। यह सारे घर को रोने का सिग्नल था। आँसू तो पहले ही से निकल रहे थे। वह मूक रुदन अब जैसे बन्धनों से मुक्त हो गया। शीतल, धीर, गंभीर बुढ़ापा जब विह्वल हो जाता है, तो मानों पिंजरे के द्वार खुल जाते हैं और पक्षियों को रोकना असंभव हो जाता है। जब सत्तर वर्ष तक संसार के समर में जमा रहनेवाला नायक हथियार डाल दे, रंगरूटों को कौन रोक सकता है।

सूखदा मोटर में बैठी। जयजयकार की ध्वनि हई। फूलोंकी वर्षा की गयी। मोटर चल दी।

हजारों आदमी मोटर के पीछे दौड़ रहे थे और सुखदा हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम करती जाती थी। यह श्रद्धा, यह प्रेम, यह सम्मान, क्या धन से मिल सकता है? या विद्या से? इसका केवल एक ही साधन है, और वह

कर्मभूमि
२७७