उद्धार न होगा। इस घाव पर कोमल शब्दों के मरहम की ज़रूरत थी--कोई उसे लेटाकर उसके घाव को फाहे से धोये, उस पर शीतल लेप करे।
मुन्नी रस्सी और कलसा लिये हुए निकली और बिना उसकी ओर ताके कुएँ की ओर चली गयी। उसने पुकारा--ज़रा सुनती जाओ मुन्नी! पर मुन्नी ने सुनकर भी न सुना। ज़रा देर बाद वह कलसा लिये हुए लौटी और फिर उसके सामने से सिर झुकाये चली गयी। अमर ने फिर पुकारा--मुन्नी, सुनो एक बात कहनी है। पर अबकी भी वह न रुकी। उसके मन में अब सन्देह न था।
एक क्षण में मुन्नी फिर निकली और सलोनी के घर जा पहुँची। वह मदरसे के पीछे एक छोटी-सी मड़ैया डालकर रहती थी। चटाई पर लेटी एक भजन गा रही थी। मुन्नी ने जाकर पूछा--आज कुछ पकाया नहीं काकी, यों ही सो रहीं? सलोनी ने उठकर कहा--खा चुकी बेटा, दोपहर की रोटियाँ रखी हुई थीं।
मुन्नी ने चौके की ओर देखा। चौका साफ़ लिपा-पुता पड़ा था।
बोली--काकी, तुम बहाना कर रही हो। क्या घर में कुछ है ही नहीं? अभी तो आते देर नहीं हुई, इतनी जल्दी खा कहाँ से लिया?
'तू तो पतियाती नहीं है बहू! भूख लगी थी, आते ही आते खा लिया। बरतन धो-धाकर रख दिये। भला तुमसे क्या छिपाती। कुछ न होता, तो माँग न लेती?'
'अच्छा मेरी क़सम खाओ।'
काकी ने हँसकर कहा--हाँ, अपनी क़सम खाती हूँ, खा चुकी।
मुन्नी दुःखित होकर बोली--तुम मुझे गैर समझती हो काकी! जैसे मुझे तुम्हारे मरने-जीने से कुछ मतलब ही नहीं। अभी तो तुमने तेलहन बेचा था, रुपये क्या किये?
सलोनी सिर पर हाथ रखकर बोली--अरे भगवान्! तेलहन था ही कितना। कुल एक रुपया तो मिला। वह कल प्यादा ले गया। घर में आग लगाये देता था। क्या करती, निकालकर फेंक दिया। उस पर अमर भैया कहते हैं--महन्तजी से फ़रियाद करो। कोई नहीं सुनेगा बेटा! मैं कहे देती हूँ।