श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनका इतना साहस कैसे हुआ? इसीलिए कि भारत पराधीन है। यह लोग जानते हैं, कि यहाँ के लोगों पर उनका आतंक छाया हुआ है। वह जो अनर्थ चाहें, करें। कोई चूँ नहीं कर सकता। यह आतंक दूर करना होगा। इस पराधीनता की जंजीर को तोडना होगा।
इस जंजीर को तोड़ने के लिए वह तरह-तरह के मंसूबे बाँधने लगा, जिसमें यौवन का उन्माद था, लड़कपन की उग्रता थी और थी कच्ची बुद्धि की बहक।
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डा० शान्तिकुमार एक महीने तक अस्पताल में रहकर अच्छे हो गये। तीनों सैनिकों पर क्या बीती, नहीं कहा जा सकता; पर अच्छे होते ही पहला काम जो डाक्टर साहब ने किया, वह तांगे पर बैठकर छावनी में जाना और उस सैनिकों की कुशल पूछना था। मालूम हुआ कि वह तीनों भी कई-कई दिन अस्पताल में रहे, फिर तबदील कर दिये गये। रेजिमेंट के कप्तान ने डाक्टर साहब से अपने आदमियों के अपराध की क्षमा मांगी और विश्वास दिलाया, कि भविष्य में सैनिकों पर ज्यादा कड़ी निगाह रखी जायगी। डाक्टर साहब की इस बीमारी में अमरकान्त ने तन मन से उनकी सेवा की, केवल भोजन करने और रेणुका से मिलने के लिए घर जाता, बाकी सारा दिन और सारी रात उन्हीं की सेवा में व्यतीत करता। रेणुका भी दो-तीन बार डाक्टर साहब को देखने गयी।
इधर से फुरसत पाते ही अमरकान्त कांग्रेस के कामों में ज्यादा उत्साह से शरीक होने लगा। चन्दा देने में तो उस संस्था में कोई उसकी बराबरी न कर सकता था।
एक बार एक आम जलसे में वह ऐसी उद्दण्डता से बोला कि पुलिस के सुपरिटेंडेंट ने लाला समरकान्त को बुलाकर लड़के को सँभालने की चेतावनी दे डाली। लालाजी ने वहाँ वे लौटकर खुद तो अमरकान्त से कुछ न कहा, सुखदा और रेणुका दोनों से जड़ दिया। अमरकान्त पर अब किसका शासन है, वह खूब समझते थे। वह इधर बेटे से स्नेह करने लगे थे। पहले हर महीने पढ़ाई का खर्च देना पड़ता था, तब उसका स्कूल जाना उन्हें ज़हर लगता