भी उसे खबर नहीं। जब लोग अपने-अपने गांवों को लौटे तो चंद्रमा का प्रकाश फैल गया था। अमरकान्त का अन्तःकरण कृतज्ञता से परिपूर्ण था। उसे अपने ऊपर किसी की रक्षा का साया ज्योत्स्ना की भाँति फैला हुआ जान पड़ा। उसे प्रतीत हआ, जैसे उसके जीवन में कोई विधान है, कोई आदेश है कोई आशीर्वाद है, कोई सत्य है, और वह पग-पग पर उसे सँभालता है, बचाता है। एक महान् इच्छा, एक महान् चेतना के संसर्ग का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ।
सहसा मुन्नी ने पुकारा--लाला, आज तो तुमने आग ही लगा दी।
अमर ने चौंककर कहा--मैंने!
तब उसे अपने भाषण का एक-एक शब्द याद आ गया। उसने मन्त्री का हाथ पकड़कर कहा--हाँ मुन्नी, अब हमें वही करना पड़ेगा, जो मैंने कहा। जब तक हम लगान देना बन्द न करेंगे, सरकार यों ही टालती रहेगी।
मुन्नी सशंक होकर बोली--आग में कूद रहे हो, और क्या!
अमर ने ठट्टा मार कर कहा--आग में कूदने से स्वर्ग मिलेगा। दूसरा मार्ग नहीं है!
मुन्नी चकित होकर उसका मुख देखने लगी। इस कथन में हँसने का क्या प्रयोजन है, वह समझ न सकी।
६
सलीम यहाँ से कोई सात-आठ मील पर डाक-बँगले में पड़ा हुआ था। हलके के थानेदार ने रात ही को उसे सभा की खबर दी और अमरकान्त का भाषण भी सुनाया। उसे इन सभाओं की रिपोर्ट करते रहने की ताकीद कर दी गयी थी।
सलीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। अभी एक दिन पहले अमर उससे मिला था, और यद्यपि उसने महन्त की इस नयी कार्रवाई का विरोध किया था; पर उसके विरोध में केवल खेद था, क्रोध का नाम भी न था। आज एकाएक यह परिवर्तन कैसे हो गया?