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ग़ज़नवी ने गंभीर होकर पूछा--आप चाहते हैं कि उन्हें वहीं से हथकड़ियाँ पहनाकर और कमर में रस्सी डालकर चार कांसटेबलों के साथ लाया जाय और जब पुलिस उन्हें लेकर चले तो उसे भीड़ को हटाने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ें?

सलीम ने घबड़ाकर कहा--क्या डी० एस० पी० को इन साख्तियों से रोका नहीं जा सकता?

'अमरकान्त आपके दोस्त हैं, डी० एस० पी० के दोस्त नहीं।'

'तो फिर आप डी० एस० पी० को मेरे साथ न भेजें।'

'आप अमर को यहाँ ला सकते हैं?'

'दग़ा करनी पड़ेगी।'

'अच्छी बात है, आप जाइए, मैं डी० एस० पी० को मना किए देता हूँ।'

'मैं वहाँ कुछ कहूँगा ही नहीं।'

'इसका आपको अख्तियार है।'

सलीम अपने डेरे पर लौटा, तो ऐसा रंजीदा था, गोया अपना कोई अज़ीज़ मर गया हो। आते ही आते उसने सकीना, शांतिकुमार, लाला समरकान्त, नैना, सबों को एक-एक खत लिखकर अपनी मजबूरी और दुःख प्रकट किया। सकीना को उसने लिखा--मेरे दिल पर इस वक्त जो गुज़र रही है, वह मैं तुमसे बयान नहीं कर सकता! शायद अपने जिगर पर खंजर चलाते हुए भी मुझे इससे ज्यादा दर्द न होता। जिसकी मुहब्बत मुझे यहाँ खींच लाई, उसी को मैं आज इन ज़ालिम हाथों से गिरफ्तार करने जा रहा हूँ। सकीना, खुदा के लिए मुझे कमीना, बेदर्द और खुदगरज न समझो! मैं खून के आँसू रो रहा हूँ। इसे अपने आँचल से पोंछ दो। मुझ पर अमर के इतने एहसान है कि मुझे उनके पसीने की जगह अपना खून बहाना चाहिए था; पर मैं उनके खून का मजा ले रहा हूँ। मेरे गले में शिकारी का तौक़ है और उसके इशारे पर मैं वह सब कुछ करने पर मजबूर हूँ, जो मुझे न करना लाजिम था। मुझ पर रहम करो, सकीना! मैं बदनसीब हूँ।

खानसामा ने आकर पूछा--हुजूर, खाना तैयार है।

सलीम ने सिर झुकाये हुए कहा--मुझे भूख नहीं है।

खानसामा पूछना चाहता था, हुजूर की तबीयत कैसी है। मेज पर कई

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कर्मभूमि