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के किसी बड़े अफसर ने कहा है। तुम उनकी कुछ मदद तो करते नहीं, और उल्टे उनके किये-कराये को धूल में मिलाने को तुले बैठे हो। मैं तो आप ही अपनी जान से मर रही हूँ, उस पर तुम्हारी यह चाल और भी मारे डालती है। महीने भर डाक्टर साहब के पीछे हलकान हुए। उधर से छुट्टी मिली, तो यह पचड़ा ले बैठे। क्यों तुमसे शान्ति-पूर्वक नहीं बैठा जाता ? तुम अपने मालिक नहीं हो, कि जिस राह चाहो, जाओ। तुम्हारे पाँव में बेड़ियाँ हैं; क्या अब भी तुम्हारी आँखें नहीं खुलती ?

अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी--मैंने तो कोई ऐसी स्पीच नहीं दी, जो कड़ी कही जा सके।

'तो दादा झठ कहते थे ?'

'इसका तो यह अर्थ है, कि मैं अपना मुँह सी लूंँ।'

'हाँ, तुम्हें अपना मुँह सीना पड़ेगा।'

दोनों एक क्षण भूमि और आकाश की ओर ताकते रहे। तब अमरकान्त ने परास्त होकर कहा--अच्छी बात है। आज से अपना मुँह सी लूंँगा, फिर तुम्हारे सामने ऐसी शिकायत आये, तो मेरे कान पकड़ना।

सुखदा नर्म होकर बोली--तुम नाराज होकर तो यह प्रण नहीं कर रहे हो ? मैं तुम्हारी अप्रसन्नता से थर-थर काँपती हूँ। मैं भी जानती हूँ, कि हम लोग पराधीन है। पराधीनता मुझे भी उतनी ही अखरती है, जितनी तुम्हें। हमारे पाँवों में तो दोहरी बेड़ियाँ हैं--समाज की अलग, सरकार की अलग; लेकिन आगे - पीछे भी तो देखना होता है। देश के साथ जो हमारा धर्म है, वह और प्रबल रूप में पिता के साथ है, और उससे भी प्रबल रूप में अपनी सन्तान के साथ। पिता को दुःखी और सन्तान को निस्सहाय छोड़कर देशधर्म को पालना ऐसा ही है जैसे कोई अपने घर में आग लगाकर खुले आकाश में रहे। जिस शिशु को मैं अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाल रही हूँ उसे मैं चाहती हूँ तुम भी अपना सर्वस्व समझो। तुम्हारे सारे स्नेह, वात्सल्य और निष्ठा का मैं एक-मात्र उसी को अधिकारी देखना चाहती हूँ।

अमरकान्त सिर झुकाये यह उपदेश सुनता रहा। उसकी आत्मा लज्जित थी और उसे धिक्कार रही थी। उसने सुखदा और शिशु दोनों ही के साथ अन्याय किया है। शिशु का कल्पना-चित्र आँखों में खिंच गया। वह नव-

कर्मभूमि
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