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घुसेंगे, मरदों पर डण्डों और गोलियों की मार पड़ेगी, तो आदमी कहाँ तक सहेगा। मुझे पकड़ने के लिए तो पूरी फौज गयी थी। पचास आदमियों से कम न होंगे। गोली चलते-चलते बची। हजारों आदमी जमा हो गये। कितना समझाती थी---भाइयों, अपने-अपने घर जाओ, मुझे जाने दो; लेकिन कौन सुनता है। आखिर जब मैंने कसम दिलाई तो लोग लौटे नहीं, उसी दिन दस-पाँच की जान जाती। न-जाने भगवान कहाँ सोये हैं कि इतना अन्याय देखते हैं और नहीं बोलते। साल में छ: महीने एक जून खाकर बेचारे दिन काटते हैं, चीथड़े पहनते हैं, लेकिन सरकार को देखो, तो उन्हीं की गर्दन पर सवार! हाकिमों को तो अपने लिए बँगला चाहिए, मोटर चाहिए, हरनियामत खाने को चाहिए, सैर-तमाशा चाहिए, पर गरीबों का इतना सुख भी नहीं देखा जाता। जिसे देखो, गरीबों ही का रक्त चूसने को तैयार है। हम जमा करने को नहीं माँगते, न हमें भोग-विलास की इच्छा है; लेकिन पेट की रोटी और तन ढाँकने का कपड़ा तो चाहिए! साल-भर खाने-पहनने को छोड़ दो, गृहस्थी का जो कुछ खरच पड़े वह दे दो। बाकी जितना बचे, उठा ले जाओ। मुदा गरीबों की कौन सुनता है।

सुखदा ने देखा, इस गँवारिन के हृदय में कितनी सहानुभूति, कितनी दया, कितनी जाग्रति भरी हुई है। अमर के त्याग और सेवा की उसने जिन शब्दों में सराहना की, उसने जैसे सुखदा के अन्तःकरण की सारी मलिनताओं को धोकर निर्मल कर दिया, जैसे उसके मन में प्रकाश आ गया हो, और उसकी सारी शंकाएँ और चिन्ताएँ अन्धकार की भाँति मिट गयी हो। अमरकान्त का कल्पना-चित्र उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ---कैदियों का जाँघिया और कन्टोप पहने, बड़े-बड़े बाल बढ़ाये, मुख मलिन, कैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ। वह भयभीत होकर काँप उठी। उसका हृदय कभी इतना कोमल न था।

मेट्रन ने आकर कहा---अब तो आपको नौकरानी मिल गयी। इससे खूब काम लीजिये।

सुखदा धीमे स्वर में बोली---मुझे अब तो नौकरानी की इच्छा नहीं है मेम साहब, मै यहाँ रहना भी नहीं चाहती। आप मुझे मामूली कैदियों में भेज दीजिए।

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कर्मभूमि