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समरकान्त ने अफसरी के इस अभिमान पर हँसकर कहा--फ़र्ज में थोड़ी-सी मिठास मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हाँ, बन बहुत कुछ जाता है। यह बेचारे किसान ऐसे गरीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना गुलाम बना सकते हो। हुकूमत तो बहुत झेल चुके। अब भलमनसी का बरताव चाहते हैं। जिस औरत को तुमने हंटरों से मारा, उसे एक बार माता कहकर उसकी गर्दन काट सकते थे। यह मत समझ लो कि तुम उन पर हुकमत करने आये हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आये हो। मान लिया, तुम्हें तलब सरकार से मिलती है; लेकिन आती तो इन्हीं की गाँठ से है! कोई मूर्ख हो, तो उसे समझाऊँ। तुम भगवान् की कृपा से आप ही विद्वान हो। तुम्हें क्या समझाऊँ। तुम पुलिसवालों की बातों में आ गये। यही बात है न?

सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता।

लेकिन समरकान्त अड़े रहे---मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नज़र नहीं लेना चाहते; लेकिन जिन लोगों की रोटियाँ नोच-खसोट पर चलती हैं, उन्होंने जरूर तुम्हें भरा होगा। तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें ग़रीबों पर जुल्म करने का अफ़सोस है। मैं यह तो नहीं चाहता कि आठ आने से एक पाई भी ज्यादा वसूल करो; लेकिन दिलजोई के साथ तुम बेशी भी वसूल कर सकते हो। जो भूखों मरते हैं, चीथड़े और पुआल में सोकर दिन काटते हैं उनसे एक पैसा भी दबाकर लेना अन्याय है। जब हम और तुम दो-चार घण्टे आराम से काम करके आराम से रहना चाहते हैं, जायदादें बनाना चाहते हैं, शौक की चीज़ें जमा करते हैं: तो क्या यह अन्याय नहीं है कि जो लोग स्त्री-बच्चों समेत अठारह घण्टे रोज़ काम करें, वह रोटी-कपड़े को तरसें? बेचारे ग़रीब हैं, बेज़बान हैं, अपने को संगठित नहीं कर सकते; इसलिए सभी छोटे-बड़े उन पर रोब जमाते हैं। मगर तुम जैसे सहृदय और विद्वान लोग भी वही करने लगें, जो मामूली अमले करते है, तो अफ़सोस होता है। अपने साथ किसी को मत लो, मेरे साथ चलो। मेैं जिम्मा लेता हूँ कि कोई तुमसे गुस्ताखी न करेगा। उनके जख्म पर मरहम रख दो, मैं इतना ही चाहता हूँ। जब तक जियेंगे, बेचारे तुम्हें याद करेंगे। सदभाव में सम्मोहन का-सा असर होता है।

कर्मभूमि
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