'आने दो। उनका काम है अपराधियों को पकड़ना। हम अपराधी हैं। गिरफ्तार न कर लिये गये, तो आज नगर में डाका मारेंगे, चोरी करेंगे, या कोई षड्यन्त्र रचेंगे। मैं कहती हूँ, कोई संस्था जो जनता पर न्यायबल से नहीं पशुबल से शासन करती है, वह लुटेरों की संस्था है। जो लोग ग़रीबों का हक़ लूटकर खुद मालदार हो रहे हैं, दूसरों के अधिकार छीनकर अधिकारी बने हुए हैं, वास्तव में वही लुटेरे हैं। भाइयो, मैं तो जाती हूँ, मगर मेरा प्रार्थना-पत्र आपके सामने है। इस लुटेरी म्युनिसिपैलिटी को ऐसा सबक दो कि फिर उसे ग़रीबों को कुचलने का साहस न हो। जो तुम्हें रौंदे, उसके पाँव में कांटे बनकर चुभ जाओ। कल से ऐसी हड़ताल करो कि धनियों और अधिकारियों को तुम्हारी शक्ति का अनुभव हो जाय, उन्हें विदित हो जाय कि तुम्हारे सहयोग के बिना वे धन को भोग सकते हैं न अधिकार को। उन्हें दिखा दो कि तुम्हीं उनके हाथ हो, तुम्ही उनके पांव हो, तुम्हारे बग़ैर वे अपंग हैं।
वह टीले से नीचे उतरकर पुलिस-कर्मचारियों की ओर चली तो सारा जनसमूह, हृदय में उमड़कर आँखों में रुक जानेवाले आँसुओं की भाँति, उसकी ओर ताकता रह गया। बाहर निकलकर मर्यादा का उल्लंघन कैसे करे। वीरों के आँसू बाहर निकलकर सूखते नहीं, वृक्षों के रस की भाँति भीतर ही रहकर वृक्ष को पल्लवित और पुष्पित कर देते हैं। इतने बड़े समूह में एक कण्ठ से भी जयघोष नहीं निकला। क्रिया-शक्ति अन्तर्मुखी हो गयी थी; मगर जब रेणुका मोटर में बैठ गयी और मोटर चली, तो श्रद्धा की वह लहर मर्यादाओं को तोड़कर एक पतलीं, गहरी, वेगमयी धारा में निकल पड़ी।
एक बूढ़े आदमी ने डाँटकर कहा--जय-जय बहुत कर चुके। अब घर जाकर आटा-दाल जमा कर लो। कल से लम्बी हड़ताल है।
दूसरे आदमी ने इनका समर्थन किया--और क्या। यह नहीं कि यहाँ तो गला फाड़-फाड़ चिल्लाये और सबेरा होते ही अपने-अपने काम पर चल दिये।
'अच्छा, यह कौन खड़ा हो गया?'
'वाह, इतना भी नहीं पहचानते? डाक्टर साहब है।'
'डाक्टर साहब भी आ गये। तब तो फ़तह है!'