गला काटनेवाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देनेवाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है?
आज वही वसूली की तारीख है। अध्यापकों की मेजों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ़ खनाखन की आवाजें आ रही हैं। सराफ़े में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है। हरेक मास्टर तहसील का चपरासी बना बैठा हुआ है। जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने जाता है, फ़ीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है। मार्च का महीना है। इसी महीने में एप्रिल, मई और जून की फ़ीस वसूल की जा रही है। इम्तहान की फ़ीस भी ली जा रही है। दसवें दर्जे में तो एक-एक लड़के को ४०) देने पड़ रहे हैं।
अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा—अमरकान्त!
अमरकान्त ग़ैरहाजिर था।
अध्यापक ने पूछा—क्या आज अमरकान्त नहीं आया?
एक लड़के ने कहा—आये तो थे, शायद बाहर चले गये हों?
'क्या फ़ीस नहीं लाया है?'
किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।
अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले—शायद फ़ीस लाने गया होगा। इस घण्टे में न आया, तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख्तियार है। दूसरा लड़का चले—गोवर्धनलाल!
सहसा एक लड़के ने पूछा—अगर आपकी इजाजत हो, तो मैं बाहर जाकर देखूँ।
अध्यापक ने मुस्कराकर कहा—घर की याद आई होगी। खैर, जाओ, मगर दस मिनट के अंदर आ जाना। लड़कों को बुला-बुलाकर फ़ीस लेना मेरा काम नहीं है।
लड़के ने नम्रता से कहा—अभी आता हूँ। क़सम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊँ।
यह इस कक्षा के संपन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज। हाजिरी देकर गायब हो जाता, तो शाम की खबर लाता। हर महीने फीस
कर्मभूमि