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सलीम ने काले खां की तरफ देखकर कहा--यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। उसके घर में आज ही लड़का होना था। बोलो काले खां, अब?

काले खां ने अविचलित भाव से कहा था--तो कोई हरज नहीं भैया ? तुम्हारा काम मैं कर दूंगा। रुपये फिर मिल जायेंगे। अब जाता हूँ, दो-चार रुपये का सामान लेकर घर में रख दूँ। मैं उधर ही से कचहरी चला जाऊँगा। ज्योंही तुम इशारा करोगे, बस।

वह चला गया, तो शान्तिकुमार ने सन्देहात्मक स्वर में पूछा--यह क्या कह रहा था, मैं न समझा ?

सलीम ने इस अन्दाज़ से कहा मानों यह विषय गंभीर विचार के योग्य नहीं है--कुछ नहीं, जरा काले खां को जवांमर्दी का तमाशा देखना है। अमरकान्त की यह सलाह है, कि जज साहब आज फैसला सुना चुके, तो उन्हें थोड़ा सा सबक़ दे दिया जाय।

डाक्टर साहब ने लंबी साँस खींचकर कहा--तो यह कहो, तुम लोग बदमाशी पर उतर आये। यह अमरकान्त की सलाह है, यह और भी अफ़सोस की बात है। वह तो यहाँ है ही नहीं; मगर तुम्हारी सलाह से यह तजवीज हुई है इसलिए तुम्हारे ऊपर भी उतनी ज़िम्मेदारी है ही। मैं इसे कमीनापन कहता हूँ। तुम्हें यह समझने का कोई हक नहीं है कि जज साहब अपने अफसरों को खश करने के लिए इन्साफ़ का खून कर देंगे। जो आदमी इल्म में, अक्ल में, तजरवे में, इज्जत में तुमसे कोसों आगे है, वह इन्साफ़ में दोनों को शरीफ़ और बलीस समझता है।

सलीम का मुंह जरा सा निकल आया। ऐसी लताड़ उसने उम्र में कभी नपायी थी। उसके पास अपनी सफाई देने के लिए एक भी तर्क, एक भी शब्द न था। अमरकान्त के सिर इसका भार डालने की नीयत से बोला--मैंने तो अमरकान्त को मना किया था; पर जब वह न माने तो मैं क्या करता।

डाक्टर साहब ने डाँटकर कहा--तुम झूठ बोलते हो। मैं यह नहीं मान सकता। यह तुम्हारी शरारत है।

'आपको मेरा यक़ीन न आये, तो क्या इलाज।'

'अमरकान्त के दिल से ऐसी बात हरगिज नहीं पैदा हो सकती।'

सलीम चुप हो गया। डाक्टर साहब कह सकते थे--मान लें, अमरकान्त

कर्मभूमि
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