लगा। सेवा-समिति के दो सौ नवयुवक केसरिया बाने पहने जुलस के साथ चलने के लिए तैयार थे। राष्ट्रीय सभा के सेवक भी खाकी वर्दियां पहने झण्डियां लिये जमा हो गये। महिलाओं की संख्या एक हजार से कम न थी। निश्चित किया गया कि जुलूस गंगातट जाय, वहां एक विराट् सभा हो, मुन्नी को एक थैली भेंट दी जाय और सभा भंग हो जाय।
मुन्नी कुछ देर तक तो शान्तभाव से यह समारोह देखती रही, फिर शान्तिकुमार से बोली--बबूजी, आप लोगों ने मेरा जितना सम्मान किया मैं उसके योग्य नहीं थी; अब मेरी आप से यही विनती है कि मुझे हरद्वार या किसी दूसरे तीर्थ-स्थान में भेज दीजिए। वहीं भिक्षा मांगकर यात्रियों की सेवा करके दिन काटूंगी। यह जुलूस और धूम-धाम मुझ-जैसी अभागिन के लिए शोभा नहीं देता। इन सभी भाई-बहनों से कह दीजिये, अपने-अपने घर जायें। मैं धूल में पड़ी हुई थी। आप लोगों ने मुझे आकाश पर चढ़ा दिया। अब उससे ऊपर जाने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है, मेरे सिर में चक्कर आ जायगा। मुझे यहीं से स्टेशन भेज दीजिए। आपके पैरों पड़ती हूँ।
शान्तिकुमार इस आत्म-दमन पर चकित होकर बोले--यह कैसे हो सकता है बहन, इतने स्त्री-पुरुष जमा है। इनकी भक्ति और प्रेम का तो विचार कीजिये। आप जुलूस में न जायेंगी, तो इन्हें कितनी निराशा होगी। मैं तो समझता हूँ, कि यह लोग आपको छोड़कर कभी न जायेंगे।
'आप लोग मेरा स्वांग बना रहे हैं।'
"ऐसा न कहो बहन ! तुम्हारा सम्मान कर रहे हैं। और हरद्वार जाने की ज़रूरत क्या है। तुम्हारा पति तुम्हें साथ ले जाने के लिए आया हुआ है।'
मुन्नी ने आश्चर्य से डाक्टर की ओर देखा--मेरा पति ! मुझे अपने साथ ले जाने के लिए आया हुआ है ? आपने कैमे जाना ?
'मुझसे थोड़ी देर पहले मिला था।'
'क्या कहता था ?'
'यही कि मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा और उसे अपने घर की देवी समझूँगा।'
'उसके साथ कोई बालक भी था ?'
'हाँ तुम्हारा छोटा बच्चा उसकी गोद में था।'