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मौ० अब्दुलहलीम 'शरर'
 


अली भी उसी मण्डली के थे, पर अपनी सभ्यता और मौलवीपन के अभिमान के कारण गोष्ठी में निस्संकोच सम्मिलित न होते थे। 'महशर' की अच्छी ख्याति हुई पर मौलाना के मनमौजीपन के कारण वह भी बन्द हो गया।

ब्याह के दो बरस बाद मौलाना को चिन्ता हुई कि जीविका का कोई स्थायी उपाय निकाले', अतः ‘अवध अख़बार से अलग होकर ‘दिल गुदाज़' नाम से अपनी मासिक पत्र निकाला। उसको आधा भाग काल्पनिक लेख होते थे, दूसरा उपन्यास। आपका पहला उपन्यास 'दिलचस्प है। उस जमाने में उर्दू में एक उपन्यास लेखक मौलवी साहब थे, दूसरे पण्डित रतननाथ सरशार कश्मीरी। 'सरशार' ने मस्ताना रंग अख्तियार किया। उनका मतलब यह था कि मेरा उपन्यास आप लोगो में दिलचस्पी से देखा जाय। इसलिए उन्होंने दास्ताने अमीर हमजा का अनुसरण करके नायक “आज्जाद को वीर, मनमौजी, स्वच्छन्द, आशिकमिजाज, चालाक ठहराया और बदीउज्जमाँ अफिमची को बख्तक का रूप दिया और उस पर निर्लज्जत का अन्त कर दिया। यह रंग ऐसा जमा कि उस समय के समाज ने हाथों-हाथ लिया।

मौलाना ने देखा कि इस रंग के समाने कोई नया रंग जमाना कठिन है। अतः उन्होंने रिन्दाना या मस्ताना रंग सरशार के लिए छोड़ दिया और अपने लिए एक नया रास्ता निकाला। इसलाम और अरब की ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर मुसलमानों की सभ्यता, संस्कृति, साहस, धर्मनिष्ठता, उदारता, साहित्यसेवा, वज़ेदारी आदि को अंग्रेजों के ढंग पर लिखना आरंभ किया।

दिलचस्प के आकर्षक रंग-रूप दिया! मलिकुल अज़ज़ उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि आम और खास रिंन्दु और भी श्री सबने उसको पढ़ा और गहरी दिलचस्पी से देखा। मंसूर मोहना” को लोगों ने आँखों पर जगह दी। दुर्गेशनन्दिनी, हसन अजीलना बहुत लोकप्रिय हुए। हिन्दुस्तान का कोई शिक्षित मुसलमान ऐसा न था, जिसने