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रणजीतसिंह
 


है, अभी २५ साल से अधिक नहीं बीते जब होली के दिनों में हर शहर के विलास-प्रिय रईसों की मण्डलियों के साथ नशे में झूमते हुए गलियों की सैर करते देखना साधारण बात थीं; पर अब यह लज्जा- जनक समझा जाता है। बल्कि कोई भला आदमी आज शराब पीकर पब्लिक में निकलने की हिम्मत न करेगा। इन बातों को ध्यान में रखते हुए अगर हम रणजीतसिंह के आचरणों को जाँचें, परखें तो हम निश्चय ही इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि शासक के मान-दण्ड से देखते हुए उनसे बहुत कम ऐसे कर्म हुए हैं जिन पर उन्हें लज्जित होना पड़े। पर हाँ, इन मान दण्ड की शर्त है।'

महाराज रणजीतसिंह बड़े ही स्थिरचित, परिश्रमी और परिणाम- दर्शी व्यक्ति थे। उनकी हिम्मत ने हारना सीखा ही न था। श्रमशीलता और कष्ट-सहिष्णुता को यह हाल था कि अकसर दिन का दिन घोड़े की पीठ पर ही बीत जाता। सूझ-बूझ उन की जबर्दस्त थी। पुस्तकी विद्या से बिल्कुल कोरे थे पर विद्वानों के साथ वार्तालाप और पर्यवेक्षण के द्वारा अपनी जानकारी इतनी बढ़ा ली थी कि यूरोपीय यात्रियों को उनकी बहुश्रुतता पर आश्चर्य होता था। साहस तो उनका स्वभाव ही था। साहसिक कार्यों के, खासकर साहस भरी यात्राओं के वृत्तान्त बड़ी रुचि से सुनते थे। यूरोप की नई खोजों और आविष्कारों का पता रखने को उत्सुक रहते थे। उनका पहनावा बहुत सादा और बनावट से खाली होता था। और यद्यपि देखने में सुन्दर न थे, बल्कि यह कहना अधिक सत्य होगा कि कुरूप थे, और डील-डौल के विचार से भी कुछ अधिक भाग्यशील न थे। पर उनके गुणों ने इन बाह्य दोषों को छिपा लिया था। चेहरे पर चेचक के भद्दे दाग थे, और एक आँख भी उसकी नजर हो चुकी थी, फिर भी मुख मण्डल पर एक तेज बरसा करती थी। फकीर अजीजुद्दीन लाहौर दरबार मैं परराष्ट्र सचिव के पद पर नियुक्त थे। एक बार दूत-रूप से लार्ड बैटिंग के पास गये थे। बातचीत के सिलसिले में लोर्ड बैटिंग पूछ-बैठे कि महाराज की कौन-सी आँख जाती रही हैं। अजीजुद्दीन