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कलम, तलवार और त्याग
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दुर को मिलती रही। उनको डर लगा कि कहीं इस उपद्रव को आग सारे नैपाले में न फैल जाय और उसका उपाय कर देना आवश्यक समझा। उन्होने सारी सेना और सरदारो को तलब किया और महाराज की छिपी तैयारियों का पूरा हाल सुनाकर उन्हें राज्यच्युत करे देने का प्रस्ताव उपस्थित किया। सेना ने उनको अपना अफसर मानने और उनकी आज्ञा पर मरने-मारने को तैयार रहने की शपथ ली। महाराज के पास पत्र भेजा गया जिसमें उन पर राज्य से बागी होकर उस पर चढ़ाई करने का अभियोग लगाया गया था, और उनकी जगह युवराज के सिंहासनासीन होने की सूचना दी गई थी। महाराज पत्र पाते ही आग हो गये, सलाहकारों ने उसमें और घी उँडेल दिया। दो हजार जवान भरती हो चुके थे। उन्हें काठमांडू पर धावा करने का हुक्म दिया गया। जंगबहादुर ने कुछ रेजिमैंटे मुकाबले के लिए भेजी बागी भगा दिये गये। महाराज नजरचन्द कर लिये गये और उन पर कड़ी निगरानी रखने का प्रबन्ध कर दिया गया मन्त्रिपद पाने के दूसरे साल में जंगबहादुर इतने लोकप्रिय हो गये और प्रजा को उन पर इतना भरोसा हो गया कि स्वयं महाराज को भी उनके मुकाबले में हार खानी पड़ी।

इस संघर्ष से छुटकारा पाने के बाद जंगबहादुर ने सेना और शासन-प्रबन्ध के सुधारों की ओर ध्यान दिया, और प्रजा की कितनी ही पुरानी शिकायते' दुर कीं। आरंभिक जीवन में उन्हें खुद सरकारी कर्मचारियों से भुगतना पड़ा था। और साधारण कष्टों को इन्हें निजी अनुभव था। तीन-चार वर्ष के प्रधानमंत्रित्व में ही वह इतने लोकप्रिय हो गये कि लोग राजा को भूल गये और उन्हीं को अपना सब कुछ समझने लगे। खासकर सैनिक तो उन पर जान देते थे। इस बीच उनसे पुरानी जलन रखनेवाले कुछ आदमियों ने उन्हें क़त्ल करने की साजिश की। पर हर बार वे किसी ने किसी प्रकार पहले से सावधान हो जाते थे। महाराज सुरेन्द्रविक्रम ने राज्य-प्रबंध के सव अधिकार उन्हीं के हाथ में दे रखे थे, और खुद उसमें बहुत