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रणा जंगबहादुर
 


कम दखल देते थे। वही विकृतमस्तिष्क युवराज अब बहुत ही बुद्धिमान् और न्यायशील राजा हो गया था।

जंगबहादुर अग्रेजों के साहस, अवसर पहचानने की योग्यता और प्रबन्ध-कुशलता के बड़े प्रशंसक थे और उस देश को देखने की इच्छा रखते थे जहाँ ऐसी जाति उत्पन्न हो सकती है। अतः मार्च १८५० ई० में वह अपने कई संबन्धियों और विश्वासी सरदारों के साथ विलायत को रवाना हुए और इंग्लैण्ड, फ्रांस घूमते हुए १८५१ ई० में वापस आये। इंगलैण्ड में उनकी खूब आवमगत हुई और उन्हें अंग्रेज समाज को देखने-समझने का भरपूर अवसर मिला। इसमें सन्देई नहीं कि वह वहाँ से प्रगतिशीलता, दृष्टि की व्यापकता और सुप्रबन्ध की बहुमूल्य शिक्षाएँ लेकर लौटे। इसी समय से अंग्रेज जाति के साथ नेपाल की भिन्नता हुई और वह आज तक बनी है।

उनके विलायत से लौटने के थोड़े ही दिन बाद नैपाल को तिब्बत से लड़ना पड़ा और उनकी मुस्तैदी तथा प्रबन्ध-कुशलता से उसकी जीत पर जीत होती रही। अन्त में १८५५ में तिब्बत ने विवश होकर नैपाल से सुलह कर ली। इस सन्धि से नेपाल को व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त हुई। महाराज ने ऐसे नीति-कुशल, कार्यक्षम मन्त्री के साथ और गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ने के विचार अपनी लड़की जंगबहादुर के लड़के के साथ ब्याह दी।

लगातार कई साल अविराम श्रम करते रहने के कारण जंगबहादुर का स्वास्थ्य कुछ बिगड़ रहा था। इसलिए १८५६ ई० में उन्होंने प्रधान मन्त्रित्व से इस्तीफा दे दिया। पर नैपाल उन्हें इतनी आसानी से छोड़ न सकता था। और देश के प्रभावशाली लोग इकट्ठा होकर उनके पास पहुंचे और इस्तीफा वापस लेने का अनुरोध किया। ग्रहों तक कि उन्हें महाराज के बदले गद्दी पर बिठाने को भी तैयार हो गये। पर जंगबहादुर ने कहा कि जिस व्यक्ति को मैंने अपने ही हाथों राज सिंहासन पर बैठाया उससे लड़ने को किसी तरह तैयार नहीं हो सकता! महाराज ने जब उनके इस त्याग की बात सुनी तो प्रसन्न होकर