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कलम, तलवार और त्याग
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अभाव हुआ कि विशपों और पादरियों ने गिरजों में वेदान्त पर भाषण किये।

एक दिन एक संभ्रान्त महिला के मकान पर लंदन के अध्यापकों की सभा होनेवाली थी। श्रीमतीजी शिक्षा-विषय पर बड़ा अधिकार रखती थी। और उनका भाषण सुनने तथा उस पर बहस की इच्छा से बहुत-से विद्वान् एकत्र हुए थे। संयोगवश श्रीमतीजी की तबीयत कुछ खराब हो गई। स्वामीजी वहाँ विद्यमान थे। लोगों ने प्रार्थना की कि आप ही कुछ फरमायें। स्वामीजी उठ खड़े हुए और भारत की शिक्षा-प्रणाली पर पाण्डित्यपूर्ण भाषण किया। उन विद्याव्यवसायियों को कितना आश्चर्य हुआ जब स्वामीजी के श्रीमुख से सुना कि भारत में विद्यदान सब दानों से श्रेष्ठ माना गया है और भारतीय गुरु अपने विद्यार्थियों से कुछ लेता नहीं, बल्कि उन्हें अपने घर पर रखता है। और उनको विद्यादान के साथ-साथ भोजन-वस्त्र भी देता है।

धीरे-धीरे यहाँ भी स्वामीजी-भक्त-मण्डली काफी बड़ी हो गई। बहुत से लोग जो अपनी रुचि को आध्यात्मिक भोजन न पाकर धर्म से विरक्त हो रहे थे, वेदान्त पर लट्टू हो गये, और स्वामीजी में उनकी इतनी श्रद्धा हो गई कि यहाँ से जब वह चले तो उनके साथ कई अंग्रेज शिष्य थे। जिनमें कुमारी नोवल भी थी, जो बाद को भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुई। स्वामीजी ने अंग्रेजों की रहन-सहन और चरित्र स्वभाव को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखा- समझा। इस अनुभव की चर्चा करते हुए एक भाषण में आपने कहा कि यह क्षत्रियों और चीर पुरुषों की जाति है।

१६ सितम्बर १८९६ ई० को स्वामीजी कई अंग्रेज चेलों के साथ प्रिय स्वदेश को रवाना हुए। भारत के छोटे-बड़े सब लोग आपकी उज्ज्वल विरुदावली को सुन-सुनकर आपके दर्शन के लिए उत्कंठित हो रहे थे। आपके स्वागत और अभ्यर्थना के लिए नगर-नगर मैं कमेटियाँ बनने लगीं। स्वामीजी जब जहाज से कौलम्बों में उतरे तो, अनसाधारण ने जिस हत्साह और उल्लास से आपका स्वागत किया,