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चित्रकला और रूपकारी

सभी गुण सन्निहित हैं। यदि कल्पना का पूरा विकास हो जाय तो अन्य सभी गण चित्रकला के विद्यार्थी में अपने आप आ जायेंगे। इसी उद्देश्य से रूपकला विद्यार्थियोंके पाठ्य-क्रम में रखी गयी है और उसे सबसे अधिक महत्त्व देना चाहिए। परन्तु विद्यालयों में वस्तु-चित्रण (माडेल ड्राइंग) का ही अधिक अभ्यास कराया जा रहा है और रूपकला तो केवल बेलबूटा बनाना सिखाने के लिए पाठय-क्रम में रखी गयी है। इसीलिए वह अनिवार्य भी नहीं है और यदि अनिवार्य है भी तो केवल बालिकाओं के लिए, क्योंकि संभवतः उनको कल्पना करने की अधिक आवश्यकता पड़ती है और लड़के तो जन्म से ही कल्पनाशक्ति लेकर आते हैं। यह बात भी नहीं है। संभवतः रूपकला का अर्थ, जैसा हम पीछे कह पाये हैं, केवल बेलबूटे से ही लिया गया है और क्योंकि बालिकाओं को अपने ब्लाउज, फ्राक, साड़ी, इत्यादि पर बेलबूटा काढ़ने की अधिक आवश्यकता पड़ती है इसीलिए यह उपयोगी समझा गया है और उनके पाठय-क्रम में यह अनिवार्य है। मेरा अभिप्राय यहाँ किसी पर आक्षेप करने का नहीं है, वरन् केवल यह है कि चित्रकला में रुचि रखनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को रूपकारी का महत्त्व भली-भाँति समझ लेना चाहिए।

अंग्रेजी साहित्य में कभी-कभी रूपकारी डिज़ाइन का अर्थ इच्छा, दृष्टि और कल्पना तीनों होता है, जैसे किसी ने एक मंदिर बनाने की इच्छा की कल्पना की, अपनी दृष्टि दौड़ायी या विचार करके एक योजना बनायी। इसी प्रकार रूपकारी में इच्छा, कल्पना, विचार, बुद्धि, विवेक, मनोभाव, उद्वेग, एकाग्रता, रुचि, रचना, अनुभव, भाव, अपने को व्यक्त करने की शक्ति, कार्यकुशलता, स्फूर्ति, कार्यारम्भ की शक्ति, योजना बनाने की शक्ति, इन सभी गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए इसका अभ्यास प्रत्येक कला के विद्यार्थियों के लिए नितान्त आवश्यक है।

रूपकारी की प्रेरणा हमें प्रकृति के विविध रुपों तथा आकारों से मिलती है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु की रचना में हमें रूपकारी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। मनुष्य को ही लीजिए। वह स्वयं ही एक रूपकला है। उसकी रचना में रूपकला के सभी गुण विद्यमान हैं। उसके मुख से ही प्रारम्भ कीजिए। एक कान दाहिने, एक कान बायें एक ही आकार के और एक ही स्थान पर। नासिका के ऊपर दायें-बायें दो लोल-विलोल लोचन। उसके कुछ ही ऊपर एक ही प्रकार की धनुषाकार दो भौहें। नासिका के सन्निकट निम्न भाग में युगल अधरोष्ठ कमलपत्र जैसे विकसित हो रहे हैं। दोनों कपोलों की समान प्राकृतियाँ और सिर कम्बुग्रीव पर सुन्दरता के साथ टिके हुए हैं। ग्रीवा के निम्न भाग में दोनों ओर के समान चौड़े कंधे और उनसे जुड़े हुए एक ही समान दो विशाल बाहु, एक ही समानुपात की दोनों हाथों की पाँचों उँगलियाँ और उसी अनुपात में दोनों जाँघे और