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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

दोनों चरण। शरीर का अंग-प्रत्यंग संतुलित, सुव्यवस्थित, सुडौल,सुदृढ़ और छंदमय है। इसी प्रकार पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी की आकृतियाँ कलापूर्ण हैं। मोर के नीले, पीले, हरे, सुनहले पंखों और लचीली-ग्रीवा तथा मुकुट को देखिए और उसकी रूपकारी को देखिए। रंग-विरंगी तितलियों, पक्षियों में रूपकला का दर्शन कीजिए। प्रत्येक में आपको एक अपनी भिन्न रूपकला का आभास होगा। किसी पौधे की शाखा पर दृष्टिपात कीजिए। उसमें भी रूपकला का क्रमिक इतिहास भरा है। एक पत्ती टहनी के दायें प्रोर से निकली है तो दूसरी वैसे ही बायें से। किसी भी फूल को लीजिए। उसकी पंखुड़ियों की बनावट, रूप, रंग सब में रूपकला के सभी गुण विद्यमान हैं। प्रकृति की सभी वस्तुओं में आप ये गुण पाइयेगा। प्रकृति कलामयी है और इसलिए प्रकृति कलाकार के लिए एक संचित सौन्दर्यकोष है। यही नहीं, प्रकृति कलाकार की गुरु भी है, जो उसे आजन्म कला का पाठ पढ़ाती रहती है। प्रकृति अपनी एक-एक वस्तु के अंग-प्रत्यंगों की रचना सोच-समझ कर भावमय और अभूतपूर्ण ढंग से करती है। प्रकृति का रचना-सौष्ठव देखकर चकित होना पड़ता है और अन्त में कहना पड़ता है कि प्रकृति सब शास्त्रों की अधिष्ठात्री है।

वैसे तो प्रकृति के सभी रूप सूक्ष्म है, परन्तु मनुष्य ने उनका नामकरण कर लिया है और उसी से वे उसे पहचानते हैं जिसे हम अब सूक्ष्म कहना उचित नहीं समझते। वर्षा में उमड़ते बादलों को देखिए। नित नये-नये रूप उनमें बनते और बिगड़ते हैं, जिसका कोई नामकरण नहीं किया जा सकता। हमने उन रूपों को पहले कभी नहीं देखा, परन्तु वे दृश्य कितने मनोहर होते हैं और हमारे भीतर नाना प्रकार के भावों और मनोभावों का संचार करते हैं, जिसका कारण यही है कि उनमें भी रूपकला के सभी गुण विद्यमान है। पानी की लहरों, चट्टानों के कटे-फटे रूपों, तटिनी के शुष्क कूलों, कंगूरों, पवन से अस्त-व्यस्त की गयी बालुका के चिह्नों, वृक्षों की छालों और उनकी जटिल-जड़ों की झुरमुट में अनेकों प्रकार की सूक्ष्म रूपकलाएँ दिखाई पड़ती हैं, जिनसे चित्र-विद्यानुरागियों को प्रेरणा मिल सकती है। प्रकृति के नग्न-सौन्दर्य का कला के प्रत्येक विद्यार्थी को मनन और अध्ययन करना चाहिए और अपनी कलाकृतियों में उसका उपयोग करना चाहिए। यह शिक्षा अन्यत्र दुर्लभ है, कलामयी प्रकृति स्वयं एक महान गुरु है। प्रकृति की ये सूक्ष्म रूपकृतियाँ हमें प्रेरित करती हैं कि हम भी अपनी कल्पना से कलापूर्ण सूक्ष्म रूपकृतियाँ तथा भावमय चित्र निर्माण करें, क्योंकि कला के दर्शन वहीं पर हो जाते हैं।

यहाँ यह हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य हो जाता है कि हम प्रकृति का निरीक्षण करें और बुद्धि से उसके नियमों की खोज करें। यदि हम प्रकृति की रचना करने के नियमों को खोजने का प्रयत्न करें तो ज्ञात होगा कि उस में एक सत्य छिपा हुआ है, जिसे जान लेने के