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और प्राधुनिक प्रवृत्तियां

यह नहीं जानता कि चित्र में कौन-से रंग प्रयोग करूँगा, काम करते समय में इसकी परवाह नहीं करता कि मैं क्या चित्रित कर रहा हूँ । जब-जब मैं चित्र प्रारम्भ करता हूँ मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अपने को एक गहरे अंधकार में फेंक रहा हूँ।"

आधुनिक कला के आलोचक कभी-कभी यही आरोप लगाते हैं कि ये चित्रकार केवल बालकों की भाँति चित्र बनाते हैं, उनमें कोई कार्यकुशलता नहीं होती । यह आरोप आधु- निक चित्रकार बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि हाँ, यदि यह बालक की भाँति ही सोच सकते और चित्रकला कर सकते तो कितना अच्छा होता । शायद जीवन में बाल्यकाल में मनुष्य जितना सुखी रहता है उतना फिर कभी नहीं हो पाता । बालक का हृदय जितना पवित्र और निर्मल होता है वैसा यदि कलाकार का हृदय हो तो उससे अधिक श्रेयस्कर वस्तु और क्या हो सकती है ?

इसलिए हम कह सकते हैं कि आधुनिक चित्रकार सूक्ष्म चित्र बनाकर वैसा ही आनन्द लेते हैं जैसे बालक अपने जीवन में । इस प्रकार के चित्रों का महत्त्व जितना कलाकार के लिए है, उतना दर्शक के लिए शायद नहीं, परन्तु यदि दर्शक बालक के चित्रों में या उनके कार्यों में आनन्द पा सकते हैं तो निश्चय ही इस प्रकार के चित्रों में भी आनन्द पा सकते हैं यदि स्नेह से इन चित्रकारों के कार्यों का मूल्यांकन करें।

जिस प्रकार लीलात्मा परब्रह्म “एकोऽहं बहु स्याम् प्रजायेय", मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ का विचार करता है और सृष्टि कर क्रीड़ा का आनन्द लेता है, उसी प्रकार कलाकार सूक्ष्म रूपों को बनाकर उस कार्य में आनन्द लेता है। जिस प्रकार सृष्टि के रूप किसी के प्रतिरूप नहीं हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म चित्रों का भी ध्येय है । इस प्रकार की सूक्ष्म चित्रकला चित्रकार के आनन्द लेने का एक साधन मात्र है, और यही आनन्द दर्शक भी पा सकता है यदि उसको भी सूक्ष्म स्वरूपों के संयोजन का ज्ञान हो ।

इस प्रकार के चित्र बनाकर सभी व्यक्तियों को आनन्द मिल सके या इस प्रकार के चित्रों को देखकर सभी दर्शकों को आनन्द मिले, यह भी संभव नहीं। यह एक प्रकार की मानसिक स्थिति होती है जहाँ पहुँचकर ही मनुष्य ऐसी कृति में आनन्द ले सकता है । जिसको सचमुच आनन्द आता है वही इस प्रकार के चित्रों की रचना कर सकता है । जिस चित्रकार की मानसिक स्थिति इस प्रकार की नहीं है वह इस प्रकार की चित्र-रचना में कभी संलग्न नहीं हो सकता। यदि इस स्थिति को हम मनुष्य की वह स्थिति कहें जहाँ मनुष्य अपने मस्तिष्क को एकाग्र कर शून्य कर लेता है जैसे योगी, तो अतिशयोक्ति न