वर्णन करना भी मनुष्य जाति की एक बहुत प्राचीन प्रवृत्ति है । वर्णन करना, मनुष्य की आत्म-अभिव्यक्ति का एक तरीका है। जीवन में मनुष्य जो कुछ अनुभव करता है, उसका स्वयं लाभ तो उठाता ही है, परन्तु केवल इसीसे उसे सन्तुष्टि नहीं होती। वह चाहता है कि उसके अनुभवों का दूसरे भी लाभ उठायें । इसमें भी उसे सन्तुष्टि मिलती है। वर्णन करने की प्रवृत्ति के साथ-साथ मनुष्य को वर्णन सुनने की भी प्रवृत्ति होती है । वह केवल वर्णन करता ही नहीं बल्कि वर्णन सुनना भी चाहता है । इससे उसके ज्ञान की वृद्धि होती है। बालक स्वयं वर्णन करने योग्य नहीं होते, क्योंकि न तो उनके शब्द- भण्डार की वृद्धि हुई होती है, न अनुभव की, परन्तु प्रारम्भ से ही उन्हें वर्णन सुनने में आनन्द मिलता है । दो वर्ष का बालक भी कहानियाँ सुनना पसन्द करता है, और प्रसन्न होता है । ऐसा शायद ही कोई बालक हो जिसे कथा-कहानी सुनने में आनन्द न मिलता हो। बालक चाहे शहर का हो या गाँव का, अमीर घर में उसने जन्म लिया हो या गरीब घर में, उसे कहानी भाती है। प्रायः देखा गया है कि गांव के बच्चे कथा-कहानी सुनने में और भी अधिक उत्सुकता दिखाते हैं। गांवों में कथा-कहानियों का प्रचार बहुत मिलता है । वहाँ के बालक, आधुनिक शिक्षा-प्रणालियों का लाभ उठा नहीं पाते, इसलिए कथा- कहानी उनकी शिक्षा का माध्यम हो जाती हैं। यही नहीं, जंगली जातियों में भी किस्सा- कहानी का बड़ा प्रचार होता है । साहित्य का इतिहास खोजने पर भी कथा-कहानियों का स्थान पहले आता है।
वैसे तो कला मनुष्य के काम करने का केवल तरीका है और रचना करना उसकी जन्मजात प्रवृत्ति है । रचना करने और वर्णन करने में अन्तर है। रचना करने में मनुष्य को आनन्द मिलता है, जो इसी कार्य का आनन्द है, परन्तु वर्णन करना आनन्द. दायक होते हुए भी अपना एक अन्य लक्ष्य भी साथ में रखता है । मनुष्य शायद वर्णन न करता यदि वर्णन सुननेवाला कोई न होता । कोई भी व्यक्ति अकेले वर्णन नहीं करता । वर्णन सुनने के लिए श्रोतागण होने चाहिए । परन्तु रचना के लिए यह आवश्यक नहीं