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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियाँ

है । रचना करके आनन्द तुरन्त मिल जाता है, इसलिए कला के लिए, जो रचना का दूसरा नाम है, यह आवश्यक नहीं कि वह वर्णनात्मक हो। फिर भी रचना में वर्णन का महत्त्व कम नहीं किया जा सकता । रचना के साथ वर्णन आदि काल से चला आ रहा है, प्रधानतया ललित कलाओं के साथ और आज भी वर्णनात्मक रचना का प्रादुर्भाव कम नहीं हुआ है। किसी न किसी रूप में रचना में वर्णन आ ही जाता है, चाहे रचना करनेवाले ने इस पर ध्यान न भी दिया हो।

मान लीजिए, कुम्भार मिट्टी के बर्तन बनाता है या उनकी रचना करता है। यहाँ उसका तात्पर्य केवल रचना करना है, वह वर्णन करना नहीं चाहता। परन्तु जरा सोचिए, जब मिट्टी के सुन्दर-सुन्दर बर्तन बनकर आपके सम्मुख आते हैं, आप उन्हें निहारते रह जाते हैं। उन बर्तनों की रचना का सारा इतिहास आपके सम्मुख आ जाता है। किस प्रकार कुम्भार तालाब से खोदकर मिट्टी लाया होगा, उसे अच्छी तरह साफ किया होगा, गूधकर चाक पर उसे रखा होगा, फिर चाक को अपनी लाठी से नचाते हुए अपनी उँगलियों को किस प्रकार गीली मिट्टी के ऊपर चलाता रहा होगा और रूप बनता चला गया होगा । क्या यह इतिहास नहीं है ? वर्णन नहीं है ? अवश्य है, परन्तु यह सब हमने उन बर्तनों को देखकर जान लिया । कुँम्भार ने जान-बूझकर कोई वर्णन करना नहीं चाहा था। इसी प्रकार चित्रकला या और सभी ललित कलाओं में वर्णन कलाकार का ध्येय चाहे न हो, पर उसमें वह रहता ही है । चित्र का एक-एक हिस्सा, पेंसिल तथा तूलिका के एक-एक नुक्ते, रंगों के छोटे से छोटे धब्बे चित्र का इतिहास बताते हैं और वर्णन उसमें निहित है।

यहाँ हमारा ध्येय उस प्रकार की चित्रकला का वर्णन करने का है जो जानबूझकर वर्णनात्मक बनायी गयी है। हमारी सारी प्राचीन कला वर्णनात्मक शैली पर आधारित है। ब्राह्मण-कला, गुप्तकालीन कला, बौद्ध तथा जैन कला, राजपूत तथा मुगल कला सभी वर्णनात्मक है। हमारी आधुनिक लोक-कला भी वर्णनात्मक है। वर्णनात्मक शैली का जितना प्रादुर्भाव भारतवर्ष में हुआ और जितनी उत्कृष्ट वर्णनात्मक शैली यहाँ रही है, उतनी कदाचित् किसी काल में किसी देश में नहीं रही। यहाँ की वर्णनात्मक शैली का ढंग ही निराला रहा है। उस समय हमारी उच्चकोटि की वर्णनात्मक चित्रकला- शैली ने हमारे समाज को जाग्रत करने तथा उसके उत्थान और शिक्षा में जो योग दिया है, उसके हम आज भी ऋणी है। वर्णनात्मक चित्रकला-शैली हमारी शिक्षा का मुख्य आधार बन गयी थी। पुस्तकों तथा छापाखानों के न होने और उनके प्रभाव के समय यही एक सरल तथा कुशल माध्यम था, जिसके द्वारा मनुष्य शिक्षा पा सकता था।