पर अलग-अलग बनाये जाते हैं। एक चित्र में केवल एक विशेष स्थान का ही वर्णन होता है, जैसा मनुष्य आँख से देखता है । चित्र केवल अकबर के तख्त का हो सकता है, या उस कमरे का, या उसके भवन का। केवल एक ही हिस्सा दृष्टिगोचर होता है। मान लीजिए, अकबर के कमरे के द्वार पर एक पर्दा टॅगा हो तो फिर चित्र में न अकबर दिखाई पड़ेगा, न उसके तख्त का रूप । इस प्रकार हमारी वर्णन करने की शक्ति, दृष्टिसम्बन्धी विद्या के ज्ञान से बँध जाती है । वर्णन करने से अधिक महत्त्व 'पर्सपैक्टिव' का हो जाता है । इसीलिए आधुनिक चित्रों में चित्रकार की कुशलता उसके 'पर्स- पैक्टिव' के ज्ञान से तौली जाती है, उसकी वर्णनात्मक कुशलता से नहीं। यह 'पर्सपैक्टिव' का ज्ञान कला की भाषा को सरल बनाने के बजाय उसको और जटिल बना देता है। कला अपने ध्येय से हटकर केवल दृष्टिसम्बन्धी विद्या के ज्ञान को व्यक्त करने में फँस जाती है । जो पाश्चात्य कला-आलोचक भारतीय वर्णनात्मक शक्ति के ज्ञान से वंचित रहे वे सदैव प्राचीन भारतीय चित्रकला को प्रारम्भिक, अपरिपक्व तथा क्षीण ही समझते रहे और अपनी निम्न बुद्धि का परिचय देते रहे । दुःख तो इस बात का है कि हमारे बहुत से कला-आलोचक, चित्रकार और जनता भी इन पाश्चात्य प्रचारकों के चंगुल का शिकार बनकर रह गये । आज भी हम जितना आनन्द पाश्चात्य यथार्थवादी कला का लेते हैं, उतना अपनी प्राचीन कला का नहीं ले पाते । यह हमारी दुर्बलता तथा अयोग्यता का द्योतक है । हम भी इन प्राचीन चित्रों को देखकर उन्हीं पाश्चात्य प्रचारकों के शब्द दुहराते हैं और कहते हैं कि उस समय हमारे कलाकार आधुनिक कला के सिद्धान्तों से वंचित थे और एक प्रारम्भिक अवस्था में थे। आज भी हम इन प्राचीन चित्रों को अस्वाभाविक समझते हैं और उनमें 'पर्सपैक्टिव' का ज्ञान न होने का आरोप लगाते हैं। परन्तु यही अज्ञान उस समय के शिल्पियों की दूरदर्शिता तथा कार्य-कुशलता का द्योतक है। जिसे हम अज्ञान समझते हैं वही उनकी शक्ति थी। आज उसे हम न पहचान सकें, परन्तु यह शक्ति हमसे अब कोई नहीं छीन सकता।
भारतीय आधुनिक चित्रकारों में इस प्रकार की प्राचीन वर्णनात्मक शैली के अनुकूल चलनेवाले आज बहुत कम चित्रकार दिखाई पड़ते हैं। शायद ही इस समय भारत में कोई ऐसा चित्रकला विद्यालय हो जहाँ इसी आधार पर वर्णनात्मक शैली के चित्र बनते हों। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चित्रकला विद्यालय में इसी प्राचीन वर्णनात्मक शैली को एक परिमार्जित आधुनिक स्वरूप देने का प्रयास हुआ है । बम्बई के युवक चित्रकार टी० ए० कामरी का "दावत", बाबजी हेरूर का “स्वतंत्रता दिवस"इसी प्राचीन वर्ण- नात्मक शैली पर आधारित उच्च कोटि के चित्र हैं । कलकत्ते के कल्याण सेन ने भी ऐसे