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आदर्शवादी प्रवृत्ति

किसी प्रकार उसे सहता है या उसमें रहने का प्रयत्न करता है। ज्ञानी मनुष्य इस वातावरण से बचने का उपाय अपनी कल्पना से बनाता है। अपनी कल्पना के योग से वह अपने वर्तमान वातावरण को भी बदलने में बहुत कुछ सफल होता है। वह वातावरण को अपने अनुकूल बनाता है। यही कार्य वैज्ञानिक का भी है। वह विज्ञान के आधार पर अपने वातावरण को अधिक रुचिकर बनाता है। यही कार्य कलाकार का भी है। वह अपनी कल्पना के योग से अपने वातावरण को अधिक सुन्दर तथा आनन्द-युक्त बनाता है। इस प्रकार दार्शनिक एक काल्पनिक जगत् की सृष्टिकर उसी में भ्रमण करता है और अपने वर्तमान कटु वातावरण से बचता है।

आदर्शवादी चित्रकला में रंग, रूप, आकार, रेखा, भाव, रस और इसी प्रकार उसकी कार्य-प्रणाली निश्चित होती है। ऐसी चित्रकला का रूप सदैव एक-सा होता है। चित्र देखकर ही कोई उसके आदर्श को भाँप सकता है। आदर्शवादी चित्रकार के चित्र सदैव एक-से होते हैं, उनकी कार्य-प्रणाली (टेकनीक) में भी भेद नहीं होता। प्रत्येक चित्र की कार्य-प्रणाली एक-सी होती है। चित्रों की रचना का आधार एक-सा होता है। चित्रों के रूप में परिवर्तन नहीं होता। आदर्शवादी चित्रकला के आलोचक ऐसी चित्रकला को प्रगति वादी नहीं समझते। आधुनिक युग में प्रगतिवाद का बहुत प्रचार है। जिस कार्य में प्रगति न हो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता। प्रगतिवादी चित्रकार केवल खोज में तथा अनुभव में विश्वास करते हैं और अनुभव और खोज का कोई अन्त नहीं है। अर्थात् निरन्तर खोज और अनुभव का कार्य चलते रहना चाहिए। आधुनिक कलाकार इसी में विश्वास करते हैं। यही हम उनका आदर्श कह सकते हैं और इस प्रकार आदर्शवादी चित्रकार वह है जो चित्र में किसी भाव या विचार को महत्त्व देता है, अर्थात् जो किसी विचार को चित्रित करता है। आधुनिक समय में आदर्शवादी चित्रकारों में श्री क्षितीन्द्रनाथ मजमदार तथा नन्दलाल बोस के नाम उल्लेखनीय हैं।