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दार्शनिक प्रवृत्ति

आज चित्रकला आत्म-अभिव्यक्ति का एक माध्यम समझी जाती है । पाषाण-युग में भी मनुष्य आत्म-अभिव्यक्ति के हेतु चित्रण करता था। पाषाण-युग के खंडहरों में चित्र आत्म-अभिव्यक्ति का कार्य करते हुए तो आज भी प्रतीत होते हैं, परन्तु उनके चित्रों में कोई दर्शन छिपा हो, ऐसा आज शायद ही कोई विश्वास करे । प्रागैतिहासिक चित्रों की विद्वानों ने काफी खोज की है और आज बीसवीं शताब्दी में यूरोप में तो इसी के आधार पर पुनः चित्रकला का निर्माण हो रहा है । कहते हैं, विश्व-विख्यात चित्रकार पिकासो इजिप्शियन तथा नीग्रो प्राचीन चित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि इसी के आधार पर उसने अपनी चित्र- कला की एक नयी धारा निकाल दी और आज अनेक चित्रकार उसी का अनुकरण कर रहे हैं। हम कह सकते हैं कि यूरोप एक भौतिकवादी देश है, इसलिए यदि वहाँ के चित्रकार प्रागैतिहासिक चित्रकला-पद्धति को आधार माने या उससे प्रभावित हों तो कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु भारतवर्ष सदा से दार्शनिक रहा है और रहेगा, इसलिए उसे इस प्रकार की भौतिकता में नहीं पड़ना चाहिए।

भारतवर्ष में भी प्रागैतिहासिक चित्रकला के उदाहरण मोहनजोदड़ो, हरप्पा, जोगी- मारा की गुफाओं तथा खण्डहरों में प्राप्त है। इस चित्रकला का मूल्यांकन अभी भली-भाँति नहीं हो पाया है, परन्तु यदि भविष्य में हुआ भी तो यह शायद ही कहा जा सके कि यह चित्र दर्शन के ऊपर आधारित हैं । जोगीमारा की गुफाओं में जो चित्र मिलें हैं वे या तो आखेट के हैं या जानवरों तथा पक्षियोंके रेखाचित्र हैं। मोहनजोदड़ों तथा हरप्पा में बर्तनों, वस्तुओं पर बने कुछ टूटे-फूटे चित्र मिलते हैं और उनमें भी जानवर, पक्षी, मनुष्य तथा डिजाइन इत्यादि हैं। उन चित्रों में दर्शन नहीं मिलता। ब्राह्मण-कला, बौद्ध-कला, तथा जैन-कला में दर्शन मिलता है ।

ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन, ये तीनों तीन प्रकार के दर्शन कहे जाते हैं और इसलिए इन कालों में जो चित्रकला हुई उसमें इन दर्शनों का दिग्दर्शन होना अपेक्षित है । इसलिए ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन कला दार्शनिक कही जाती है । बाद में मुगल तथा राजपूत-कला का