हैं कि अभासिक चित्रकला में दो मुख्य कार्य-कुशलता दिखाई पड़ती है, एक तो ऊपरी सतह टेक्सचर की बनावट तथा प्रकाश और छाया का वैज्ञानिक प्रयोग।
तीसरी बात जो आभासिक चित्रकला में बहुत ज्वलन्त है, उसके चित्रों का धुँधलापन है। अर्थात् इन चित्रों में अधिकतर धुँधले एक-दूसरे में मिलते हुए रंग तथा रूप दिखाई पड़ते हैं। भारत की आधुनिक बंगाल-शैली जिसमें वाश टेकनिक पायी जाती है, इस आभासिक शैली का तीसरा पक्ष है, जिसे बंगाल-शैली में बड़ा प्रमुख महत्त्व मिला है। प्रधानतया यूरोपीय ग्राभासिक चित्रकार टर्नर का भारतीय बंगाल-शैली पर बहुत ही प्रभाव रहा है। यही कारण है कि यद्यपि हमारी सारी भारतीय परम्परा में शुद्ध रंगों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है, परन्तु बंगाल-शैली ने इसकी उपेक्षा की है।
भारतीय आधुनिक चित्रकारों में स्वर्गीया अमृत शेर गिल, सुधीर खास्तगीर, बम्बई के बेन्द्र, तथा पी० सेन इत्यादि आभासिक चित्रकला के अनुयायियों में से प्रधान हैं। सुधीर खास्तगीर बंगाल-शैली के स्नातक रहे हैं, परन्तु यूरोप के सम्पर्क में आकर उन्होंने भारतीय आधुनिक चित्रकला में ऊपरी सतह की बनावट टेक्सचर को अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इस दिशा में उनका प्रयास प्रशंसनीय है।
सन् १९१९ई० में जब प्रथम महायुद्ध समाप्त हुआ तब तक यूरोप में कला की एक दूसरी ही धारा जो आभासिक चित्रकला का ही एक परिमार्जित रूप थी, पोस्ट इम्प्रेरिनज्म, उत्तर आभासिक चित्रकला के नाम से विख्यात हुई। इसका प्रमुख नेता सेजान था। आभासिक चित्रकारों का कहना था कि वे वस्तुओं को उस प्रकार चित्रित नहीं करना चाहते जैसा उसे लोग चित्र में देखना पसन्द करें बल्कि आभासिक चित्रकार वही रूप चित्रित करता है जैसे उसे वह रूप प्रभावित करता है। परन्तु उत्तर आभासिक चित्रकार इतने से ही सन्तुष्ट न रहें और उन्होंने यह तय किया कि चित्रकार जैसा देखता है वस्तुओं को वैसा ही नहीं चित्रित करेगा, बल्कि जैसा वह वस्तुओं को जानता या सामझता है। अर्थात् चित्रकला का रूप अब स्वाभाविक नहीं रहा बल्कि चित्रकार का संसार को देखने तथा समझने का अपना दृष्टिकोण लक्षित होने लगा। जैसे कुछ चित्रकारों ने प्रकृति के रूपों को विभिन्न आकार के धन में देखा और क्यूबिस्ट कला को प्रारम्भ किया। इस प्रकार की चित्रकला सेजान से प्रारम्भ हुई और पिकासो की चित्रकला में उसका पूर्ण रूप विकसित हुआ। उत्तर प्राभासिक चित्रकारों का मुख्य प्रयास वस्तुओं के आकार में घनत्व लाना था। इसको "थ्री डाइमेश्नल आर्ट" कहते हैं। इसमें चित्र में वस्तुओं की लम्बाई तथा चौड़ाई के साथ-साथ मोटाई या गहराई को भी चित्रित करने का प्रयास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी की चित्र-कला केवल