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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ


भारतवर्ष में चित्रकला और अनेकों कलाओं का स्वर्ण-यग इतिहास में मिलता है और आज भी उस समय की कलाओं के कुछ अद्भुत नमूने देखने को मिलते हैं। उत्तर में ताजमहल संसार का सर्वश्रेष्ठ स्थापत्य है। उसे कौन एक महान् कलाकृति नहीं समझता, जिसके आगे आज के वैज्ञानिक और इंजीनियरों की बुद्धि ठप्प हो जाती है? आज के वैज्ञानिक तथा इंजीनियर उसे केवल कलाकृति ही नहीं, अपितु उसकी सृष्टि करनेवाले को महान् वैज्ञानिक तथा इंजीनियर भी समझते हैं। दक्षिण भारत में सैकड़ों कलापूर्ण मन्दिर आज भी अपनी शोभा से दर्शकों के चित्त चुरा रहे हैं। उन वैज्ञानिक मूलों और आधारों का, जिनपर इन महान स्थापत्यों की सृष्टि हुई है, आज का वैज्ञानिक तथा इंजीनियर लोहा मानता है। इन मन्दिरों के रूप और उनकी अलंकरण-व्यवस्था, मूर्तिकला और चित्रकला को देखकर आज का चित्रकार अवाक रह जाता है। इसका कारण यही है कि उस समय के कलाकार केवल कलाकार ही नहीं, अपितु विज्ञान, गणित शास्त्रादि के भी पण्डित थे।

गोविन्दकृष्ण पिल्लई ने अपनी पुस्तक 'शिल्पियों की जीवन-पद्धति' के आरम्भ में ही लिखा है कि "अतीत में जब कला और हस्तकौशल में कोई भेद न था और कलाकार अथवा शिल्पी एक ही व्यक्ति होता था, तब हिन्दू कलाकार, स्थापत्य और मूर्तिकार तीनों के लिए 'शिल्पी' शब्द का व्यवहार करते थे। इन तीनों का गणित और ज्योतिष जैसे विषयों पर अधिकार होता था। वे शिल्पी कला तथा विज्ञान दोनों के पण्डित होते थे। शिल्प-शास्त्र में कला तथा विद्वत्ता दोनों का ही समावेश है। शिल्पशास्त्र के रचयिता भगवान् शिव माने गये हैं जो संसार के सर्वश्रेष्ठ रचयिता हैं, अथवा विश्वकर्मा, जो संसार की समस्त कल्पनाओं तथा विज्ञान के पण्डित हैं।"

अजंता और बाघ आदि की चित्रकला अति प्राचीन होते हुए भी देखने में अभी कल की-सी जान पड़ती है। अजंता के चित्रकार कितने महान् वैज्ञानिक रहे होंगे, जिन्होंने ऐसे रंगों तथा सामग्रियों से अपनी रचना की थी कि वह आज भी नूतन रूप लिये सुरक्षित है, उनके रंग फीके नहीं पड़ सके। यही नहीं, उनके चित्रों के मूल में कितना विज्ञान भरा पड़ा है, जिसे समझने के लिए हम कभी प्रयत्नशील नहीं हुए। उनके रंगों का सिद्धान्त, उनके आकारों तथा निर्माण के सिद्धान्त कितने वैज्ञानिक थे, अभी हमने अपनी दृष्टि इस ओर नहीं दौड़ायी। यह एक दुःख का विषय है कि उनके सिद्धान्तों के प्रति किसी प्रकार का भी प्राचीन लेख अप्राप्य है और अन्वेषकों ने उस ओर कोई लक्ष्य नहीं किया है।

जिस समय यूनान और रोम विलासिता के झंझावात से प्रताड़ित होकर अपनी समाधि में सो रहे थे, उस समय पराक्रमी गुप्त सम्राटों का आश्रय पाकर भारतीय कला अनेक रूप धारण करके हमारे स्वर्णयुग की रचना कर रही थी। अमर कवियों की लेखनियाँ अमर