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पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/१७०

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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

ऐसा भी हो सकता है, परन्तु चित्रकार केवल यही नहीं करता। वह इस लोक की सुन्दर वस्तुओं का या रुचिकर वस्तुओं का ज्ञान तो रखता है, परन्तु उन्हें ही वह चित्र में वैसे का वैसा नहीं रखता। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु के रूप को वह वैसे का वैसा ही पसन्द नहीं करता, प्रत्युत अपनी कल्पना को उन वस्तुओं पर दौड़ाता है और सोचता है कि यह रूप कैसा होता कि उसे और अधिक पसन्द आता। अर्थात् वह प्रकृति के रूपों को अपनी कल्पना और रुचि के अनुसार परिमार्जित कर और अधिक सुन्दर बनाना चाहता है। अथवा उसके मस्तिष्क में पहले एक भाव या विचार आता है। उसी विचार के आधार पर वह प्रकृति के रूपों को परिवर्तित करना चाहता है। वह एक अपना आदर्श बनाता है और उसी दृष्टिकोण से प्रत्येक वस्तु को देखता है। इसीलिए इस प्रकार की चित्रकला को आदर्शवादी भी कह सकते हैं। अन्य कला-आलोचकों ने इस प्रकार की कला को आदर्शवादी ही कहा है। समस्त प्राचीन भारतीय चित्रकला इसी नाम से सम्बोधित की जाती है।

आधुनिक चित्रकला में उपर्युक्त विचार भी काल्पनिक चित्रों की कोटि में आते हैं,परन्तु आज इस विचार का एक परिमार्जित रूप ही काल्पनिक चित्रकला के नामसे सम्बोधित किया जाता है। काल्पनिक चित्रों में केवल प्रकृति के रूपों का परिमार्जन ही नहीं होता, बल्कि कल्पना के आधार पर नये रूपों तथा वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। विश्वविख्यात चित्रकार लियोनार्डो, दा विंशी ने अपने चित्रों में कुछ ऐसे जानवरों, पशु-पक्षियों का चित्र अपनी कल्पना से बनाया है जैसे प्रकृति में नहीं मिलते। प्राचीन भारतीय चित्रकारों ने भी नरसिंह, गणेश और इसी प्रकार के अनेक नये रूपों (देवी-देवताओं, अवतारों) की कल्पनाएँ की थीं जो प्रकृति में नहीं मिलते। परन्तु आधुनिक चित्रकार इतने से सन्तुष्ट नहीं होते, वे केवल नये रूप ही नहीं बनाते बल्कि उसी प्रकार के नये रूपों से अपने सम्पूर्ण चित्रका विलक्षण संयोजन करते हैं।

काल्पनिक चित्रकार यह भी आवश्यक नहीं समझता कि जो रूप वह बनाये वह प्रकृति के विभिन्न रूपों का सम्मिश्रण हो, जैसे—नरसिंह या गणेश का रूप। नरसिंह के रूप में सिर सिंह का, शरीर मनुष्य का है; उसी प्रकार गणेश का सिर हाथी का, शरीर मनुष्य का। इस प्रकार के संयोजन में चित्रकार सृष्टि की दो विभिन्न वस्तुओंया रूपों का अपनी कल्पना के आधार पर सम्मिश्रण करता है। परन्तु आधुनिक चित्रकार इतना ही नहीं करना चाहता, प्रत्युत वह एक अभूतपूर्व जीव या वस्तु कल्पना के सहयोग से बनाना चाहता है। इस कार्य में सफल होने के लिए पहले चित्रकार को प्रकृति के रूपों के मूल को समझना पड़ता है, वह प्रकृति के रहस्य का भली-भाँति अध्ययन करता है और यह समझने का प्रयत्न करता है कि प्रकृति में रूप किस आधार पर बनते-बिगड़ते हैं। इस सिद्धान्त को समझकर वह स्वयं