होती है। मूर्ति को चारों ओर से घूम फिर कर देख सकते हैं। उसका मुख तथा पीठ दोनों हम देख सकते हैं। जिस प्रकार शरीर के मांस में गढ़न होती है वही पत्थर, मिट्टी या धातु की मूर्ति में भी बनायी जाती हैं, क्योंकि पत्थर, मिट्टी या धातु में घनत्व होता है और इस प्रकार उसका प्रयोग हो सकता है; परन्तु दीवाल की चपटी सतह पर, कैनवस या कागज के चपटे धरातल पर रंग से लगाकर घनत्व नहीं निर्मित किया जा सकता, जिस प्रकार पत्थर, मिट्टी या धातु से हो सकता है। पत्थर, मिट्टी या मोम की मूर्ति बनाकर उसमें मनुष्य जैसा रंग देकर ऐसी रचना भी की जा सकती है जो मनुष्य की आँखों को धोखे में डाल दे। यह प्रतिभा बाह्य रूप में मनुष्य की हूबहू नकल हो सकती है, केवल उसमें जीवन की कमी होगी। वैसे आधुनिक समय में मोम की ऐसी मूर्तियाँ भी बनती हैं जो यंत्र-चालित होती हैं और हिलती-डुलती भी हैं, रेडियो के द्वारा बोल भी सकती हैं। ऐसा चित्र में नहीं हो सकता। इतनी यथार्थता चित्र में नहीं उत्पन्न की जा सकती। चित्रकार सदैव इससे वंचित रहे। यद्यपि इसको उत्पन्न करने के लिए उनका प्रयत्न हमेशा जारी रहा, चाहे वह असंभव ही क्यों न हो। घनत्ववाद इसी प्रयास का एक नया रूप है यद्यपि मूर्तिकला की भाँति यथार्थ रूप में इसमें सफलता न मिली।
इसी प्रकार भवन-निर्माण कला में घनत्व का दर्शन होता है। मकान में लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई होती है। सामने यदि बारामदा बना हो तो साफ दिखाई पड़ता है कि वह कितना गहरा है या चौड़ा है। मकान देखने पर तस्वीर-सा चपटा नहीं होता बल्कि उसका घनत्व साफ दिखाई पड़ता है। सामने का बरामदा, उसके दरवाजे, भीतर का आंगन भी देख सकते हैं। प्रांगन के पीछे का कमरा भी दिखाई पड़ता है, अर्थात् हमारी आँख मकान के सामने के भाग को देखती है तथा भीतर को भी देख सकती है और इस प्रकार काफी गहराई तक हम देख लेते हैं। पास की चीज पास दिखाई पड़ती है और दूर की वस्तु दूर। चित्र में भी ऐसा आभास उत्पन्न किया जा सकता है। और यही करने के लिए पर्सपेक्टिव का उपयोग चित्रकला में होना प्रारम्भ हुआ जिससे चित्र और यथार्थ के समीप पहँचा, यद्यपि फिर भी चित्र चपटा ही रहा, केवल घनत्व का आभास मात्र ही हो सका।
यही प्रयास प्राचीन भारतीय चित्रकारों ने भी किया परन्तु यहाँ पर्सपेक्टिव के आधार पर यह प्रयास नहीं हुआ। प्राचीन अजन्ता, जैन, राजपूत, तथा पहाड़ी शैली के चित्रों में खास कर जहाँ-जहाँ चित्र में महल, मकान इत्यादि बने दिखाई पड़ते हैं, उनमें यह प्रयत्न हुआ है कि मकान का बाहरी भाग तथा भीतरी भाग दोनों दिखाई दें। इस तरह के अनेकों प्रयास हुए हैं। एक ही चित्र में शहर की चौहद्दी की दीवाल राजमहल के चारों ओर का अहाता, राजमहल का चबूतरा, भीतरी आंगन, कमरे के भीतर सोती राजकुमारी, छत पर नाच-गाने