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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

इन्तजाम, महल के पीछे का बगीचा, दूर का दृश्य, पहाड़, जंगल-झरने तथा आकाश पहाड़ पर विचरते पशु-पक्षी तथा जीव, आकाश में उड़ते पक्षी इत्यादि सभी का चित्रण एक ही चित्र में हुआ है। इस प्रकार चित्र में घनत्व की भावना हमारे प्राचीन चित्रकार करते रहे हैं। मुगल-काल में पाश्चात्य प्रभाव के कारण चित्रों में पर्सपेक्टिव के आधार पर भी रचनाएँ हुई हैं।

पाश्चात्य चित्रकला में घनत्व उत्पन्न करने का प्रयास होता रहा। बीसवीं शताब्दी तक आते-आते पाश्चात्य चित्रकला ने पर्सपेक्टिव के द्वारा घनत्व के प्रयास में रुचि लेना बन्द कर दिया, क्योंकि इससे घनत्व का एक धोखा अवश्य होता था, लेकिन इसमें बँधकर चित्रकार अपनी स्वतंत्रता खो बैठता था। खुलकर सरलता के साथ चित्र बनाना कठिन हो गया। पर्सपेक्टिव के साथ चित्र बनाना कठिन हो गया। पर्सपेक्टिव का सिद्धान्त एक गणित का प्रश्न-सा हो गया। इसी बीच तरह-तरह के प्रयोग होने लगे और नये-नये विचार चित्रकला के क्षेत्र में आने लगे। कला की परिभाषा बदली और यह धारणा स्थापित होने लगी कि चित्र हम वैसा न बनायें जैसा हम आँखों से देखते हैं, बल्कि वैसा बनायें जिसे हम जानते हैं। पर्सपेक्टिव के आधार पर बने दृश्य में दूर की वस्तुएँ छोटी तथा पास की बड़ी बनायी जाती हैं। यदि किसी मैदान का चित्र बनाना हो जिसमें दूर पर एक हाथी खड़ा हो और चित्रकार के प्रति निकट एक चूहा हो तो चित्र में पर्सपेक्टिव के आधार पर बने चूहे को बड़ा तथा हाथी को छोटा बनाना पड़ेगा। देखने में चूहा हाथी के बराबर लगेगा और हाथी चूहे के बराबर। इस प्रकार पर्सपेक्टिव के द्वारा दूरी पर अनुभव कराया जाता था। परन्तु चित्रकला के नये सिद्धान्तों के कारण चित्रकारों ने यही उचित समझा कि जब हाथी चूहे से बड़ा है, इसे हम भली-भाँति जानते हैं, तो पर्सपेक्टिव के गुलाम होकर चूहे को बड़ा और हाथी को छोटा क्यों बनायें? जब हम जानते हैं कि रेल की पटरियाँ समानान्तर रूप से चलती हैं तो चित्र में दूर की पटरियाँ मिलती हुई क्यों बनायें? यहीं से पर्सपेक्टिव के उपयोग का अन्त होना प्रारम्भ होता है। इस समय तक भारतीय तथा पूर्वीय देशों की चित्रकला प्रचुर मात्रा में पाश्चात्य देशों को पहुंच चुकी थी और पाश्चात्य कलाकार धीरे-धीरे उससे प्रभावित हो रहे थे। पूर्वीय चित्रों में पर्सपेक्टिव का आधार न था बल्कि उसके स्थान पर राजपूत, पहाड़ी तथा अजन्ता चित्रों की भाँति एक ही चित्र में कई दृश्य दिखाने की परिपाटी का पश्चिमी कलाकारों पर काफी प्रभाव पड़ा। इसी भावना के आधार पर पाश्चात्य देशों में तमाम नयी आधुनिक शैलियों का जन्म हुआ जिनमें से 'घनत्ववाद' एक है।

क्यूविज्म का आरम्भ इसी से हुआ। प्राकृतियों को क्यूव या सिलिण्डर के रूप में गढ़ना आरम्भ हुआ। जैसे मनुष्य के सिर को एक क्यूव समझें, गले को दूसरा, वक्षस्थल को तीसरा,