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अन्तर-राष्ट्रीय प्रवृत्ति

प्राचीन है। यहाँ धोखे और सचाई का निर्णय सदियों पहले हो चुका है। फिर धोखा खाने का प्रश्न ही नहीं उठता। धोखा तो वह समाज खाता है जिसका इतिहास नया हो या जिसकी संस्कृति का कोई आधार न हो। संस्कृति, परम्परा और इतिहास मनुष्य को इसी प्रकार के धोखे से बचाते हैं। जो संस्कृति प्राचीन होती है उसके आदर्श भी निश्चित हो जाते हैं, और ऐसा ही समाज आदर्शवादी समाज कहलाता है। आदर्श सामने रहने पर धोखा जल्दी नहीं होता। यूरोप में प्रधानतया इंगलैण्ड में इस प्रकार की पुरानी संस्कृति, परम्परा या इतिहास बहुत नया है और बन रहा है, इसीलिए उन्हें धोखा देने और धोखा खाने की आवश्यकता पड़ी। जो लोग आदर्शवाद को अनावश्यक समझते हैं, वे धोखा अवश्य खाते हैं। भारतवर्ष ने इस प्रकार की धोखा देनेवाली चित्रकला में कभी भी विश्वास नहीं किया।

यूरोप की आत्म-अभिव्यंजनात्मक चित्रकला का भारत में इस समय काफी प्रचार है। उसका एक मात्र कारण यह है कि भारतवासी ऐसी कला का सदैव से आदर करते आये हैं, और इसे वे अपना ही समझते हैं। आत्म-अभिव्यंजनात्मक चित्रकला-पद्धति की मुख्य विशेषता उसकी स्वतंत्रता की भावना है। इस पद्धति में चित्रकार स्वतंत्र है अपनी रचना करने में। यूरोपीय यथार्थवादी चित्रकला में पर्सपेक्टिव' का ज्ञान बहुत ही आवश्यक रहा है। इस 'पर्सपेक्टिव' का प्रयोग भारतीय प्राचीन कला में बहुत कम हुआ है। इसीलिए पहले जब यूरोप ने भारतीय कला पर आलोचला की तो यही कहा कि यहाँ की कला अपभ्रंश है अर्थात् बहुत ही निम्नकोटि की है। ऐसा उस समय उन्हें कहने का अधिकार था। परन्तु आज आधुनिक चित्रकारों में शायद ही कोई ऐसा हो जो 'पर्सपेक्टिव' का अपने चित्रों में उपयोग करता हो या उसे आवश्यक समझता हो। विश्वविख्यात चित्रकार पिकासो स्वयं इसके विरोधी हैं। अर्थात् यूरोप को आज यह ज्ञान हुआ है कि चित्र में 'पर्सपेक्टिव' से कहीं अधिक महत्त्व की वस्तुएँ हैं जिनको चित्रित करने के लिए 'पर्सपेक्टिव' ऐसे क्षुद्र ज्ञान को हमें छोड़ना होगा। भारत इस पर्सपेक्टिव को कभी आवश्यक नहीं समझता था, यद्यपि इसका कुछ उपयोग यहाँ के चित्रों में मिलता है। यूरोप में बालकों की कला, इजिप्शियन कला और नीग्रो-कला के ऊपर जब लोगों ने खोज की तो उन्हें एक नयी ही अनुभूति हुई, यहाँ से आधुनिक चित्रकार ने इसमें विश्वास करना प्रारम्भ किया कि वह आँख से जैसा देखता है वैसा चित्र नहीं बनायेगा बल्कि जैसा वस्तुओं के बारे में उसका अनुभव है उसके अनुसार उनका चित्र बनायेगा। मान लीजिए, हमें रेलवे लाइन का चित्रण करना है। अगर पटरी पर खड़े होकर हम दूर तक लाइन की ओर दृष्टि डौड़ायें तो हमें दोनों पटरियां दूर जाकर मिलती हुई दिखाई देंगी, यद्यपि सचमुच ऐसा नहीं होता। पटरियाँ सदैव समानान्तर रेखाओं के आधार पर चलती हैं। प्राभासिक या उत्तर-आभासिक चित्रकार यदि चित्रण करता तो पटरियों को ऐसा ही बनाता, परन्तु आधुनिक आत्म-अभिव्यंजनात्मक