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पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/१९०

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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

चित्रकला में ऐसा कभी भी न होगा। चित्रकार जानता है कि पटरियाँ कभी एक दूसरे से नहीं मिलतीं, यदि ऐसा हो तो गाड़ी फौरन पटरी से नीचे आ जाय। इसलिए आधुनिक चित्रकार रेलवे लाइनों को समानान्तर ही बनायेगा।

इसी प्रकार एक चक्षु-चित्र में ही दोनों आँखों का दिखाई देना, (जैसा पिकासो के चित्रों में) सामने के पेड़ और दूर के पेड़ को एक ही नाप का बनाना, यद्यपि दूर का पेड़ छोटा दिखाई पड़ना चाहिए—एक ही रूप में कई मुद्राएँ दिखाना, चीजों को पारदर्शक करके आमने-सामने दोनों तरफ का दृश्य एक साथ दिखाना, एक ही चित्र में कई चित्र बनाना इत्यादि आधुनिक आत्म-अभिव्यंजनात्मक कला में बहुतायत से दृष्टिगोचर होता है। ये सभी बातें स्वाभाविक चित्रण के प्रतिकूल हैं, क्योंकि यहाँ चित्रकार प्रकृति को उस प्रकार चित्रित नहीं कर रहा है जैसा वह देखता है बल्कि स्वतंत्रता के साथ वह इन रूपों के द्वारा आत्म-प्रकाशन का कार्य कर रहा है। उपर्युक्त सभी बातें पिकासो के चित्रों तथा आधुनिक यूरोपीय चित्रों में दिखाई पड़ती है और अक्षरशः ये सभी बातें प्राचीन भारतीय जैन-कला तथा अन्य शैलियों में दिखाई पड़ती हैं। अगर यह कहा जाय कि आधुनिक यूरोपीय कला शायद अनजाने में भारतीयता के निकट आ रही है तो मिथ्या न होगा। जिसने प्राचीन भारतीय चित्रकला पर भली-भाँति अध्ययन किया है वह इस बात से तुरन्त सहमत होगा।

इस प्रकार यूरोपीय तथा भारतीय चित्रकला में साम्य दिखाई पड़ता है, फिर भी साधारण मनुष्य को तो उनमें कोई भी समानता नजर न आयेगी। यह एक अध्ययन करने योग्य विषय है और आधुनिक नव-चित्रकार को इस कार्य में रुचि लेनी चाहिए। अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि अति प्राचीन जैन चित्र और आधुनिक पिकासो-चित्र में बहुत कम अन्तर है या हम इस प्रकार कह सकते हैं कि आधुनिक यूरोपीय चित्रकला अभी तो केवल अपना स्वाभाविक विकास मात्र ही कर रही है और यह भारतीय चित्रकला सदियों पहले कर चुकी है। जो रास्ता चित्रकला के विकास में जैन-चित्रकला ने या भारतीय चित्रकला ने सदियों पहले पार किया है, इस समय आधुनिक यूरोपीय चित्रकला उसी को पार करने का प्रयत्न कर रही है। ऐसा भी हो सकता है कि और अध्ययन के बाद आधुनिक यूरोपीय चित्रकला भारतीय चित्रकला के और समीप पहुँच जाय। पहले यूरोपीय चित्रकला में रंगों के अच्छे सम्मिश्रण पर बहुत ध्यान दिया जाता था, पर आधुनिक यूरोपीय चित्रकला में शुद्ध रंगों का ही प्रयोग होने लगा है जैसा राजपूत या जैन-चित्रकला में होता था। जैसे श्री डाइमेंशन, त्रिभंग रूप के स्थान पर चपटे रंग और आकार जैसा कि प्राचीन भारतीय चित्रों में, लय, छन्द, गति, सन्तुलन इत्यादि संगीत के गुणों का चित्र में सामंजस्य होता था उसी प्रकार आधुनिक यूरोपीय चित्रकला भी एक डिजाइन-सी प्रतीत होती है।