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कल और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

है । इसी प्रकार क्षणिक भावावेश में आकर बिना भली-भाँति मनन किये उत्कृष्ट रचना नहीं हो सकती और अगर ऐसे समय रचना होती है तो वह स्वस्थ नहीं होती । इस प्रकार यह समझना कि सच्ची कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार भूखा हो, दरिद्र हो और दुनिया की मुसीबतों से जर्जरित हो गया हो, नितान्त मूर्खता है । ऐसी भावना उन्हीं लोगों की होती है जो कलाकार से उसी प्रकार की आह सुनने को उत्सुक होते हैं जैसे नीरो मनुष्य को शेर के कटघरे में डालकर सुनता था ।

सच्ची और उत्कृष्ट कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार के मन, मस्तिष्क और शरीर में सुडौलता रहती है । यदि एक कलाकार जिसको हजार कोशिश करने पर भी दोनों समय का खाना नहीं जुटता, कविता की रचना करना चाहे तो उसके मन में सुडौलता कभी नहीं रह सकती । या तो वह भूख-तड़पन से पीड़ित रचना करेगा और समाज के अन्य व्यक्तियों के प्रति आग उगलेगा या जिस प्रकार भूखा कुत्ता किसी को कुछ खाते देखकर जीभ तथा पूँछ हिलाता है और लार टपकाता रहता है, दया का पात्र बनेगा, दूसरों को कुछ देना तो दूर रहा ।

सच्ची कला की रचना उसी समय हो सकती है जब कलाकार सुखी और सम्पन्न हो, हष्ट पुष्ट हो, सुडौल विचारवाला हो, समाज से घृणा न करता हो, किसी के प्रति द्वेष न रखता हो, जीवन का मूल्य समझता हो । इसका यह तात्पर्य नहीं कि आज तक जितने उत्कृष्ट कलाकार हुए हैं उनको यह सब प्राप्त था । मेरा तो यह कहना है कि अगर उनको यह सब भी प्राप्त होता तो और भी ऊँची कला का निर्माण हुआ होता और आज उनकी देन से हमारा समाज और भी ऊँचे तथा सुडौल धरातल पर होता । कलाकार एक घड़े के समान है । जैसा जिसका घड़ा होता है, संसार से वह उतना ही उसमें भर पाता है । अगर घड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है, फूटा हुआ है तो उसमें क्या रह सकेगा, यह साफ है । सुडौल, मजबूत तथा सुन्दर घड़ा ही अपने अन्दर कोई बड़ी तथा सुन्दर वस्तु रखने की कल्पना कर सकता है ।

इस प्रकार उत्कृष्ट रचना के लिए यह आवश्यक है कि कलाकार हर प्रकार से सुडौल हो, विशाल व्यक्तित्ववाला हो । उसे किसी प्रकार की लालसा न हो अर्थात् बनारसी भाषा में “मस्त रहनेवाला" हो । इसी मस्ती में उससे कुछ उत्तम रचना की आशा की जा सकती है । कलाकार चिन्ता से रहित हो, ऐसे त्यागी के समान हो जिसे कुछ पाने की लालसा न हो अपितु समाज को कुछ देने की क्षमता हो । वह अपने लिए चिन्तित न हो बल्कि समाज की शुभकामना करता हो । समाज का व्यक्ति होते हुए भी समाज के दायरे से ऊपर उठकर समाज का निरीक्षण कर सकने की क्षमता रखता हो । अपने को अकेला न समझे बल्कि घट-घट में व्याप्त होने की क्षमता रखता हो । अपनी भावनाओं में बहनेवाला