न हो बल्कि दूसरों के भावों में प्रवेश करने की क्षमता उसमें हो । अपना दर्द लिये समाज को दर्दीला न बनाये बल्कि समाज के दर्द से व्यथित होनेवाला हो । अपनी खुशी में मस्त न हो बल्कि समाज की खुशी में हिस्सा लेनेवाला हो । समाज के साधारण व्यक्ति के समान मुसीबतों में रोनेवाला न हो बल्कि समाज का पथ-प्रदर्शन करने की क्षमता रखता हो ।
संसार में जीव जो कुछ करता है, सुख पाने की लालसा से करता है । सुख की वृद्धि के लिए ही समाज भी बनता है । जब व्यक्ति अकेले सुख प्राप्त करने में असमर्थ होता है तब उसे समाज की शरण लेनी पड़ती है । समाज से उसे बल मिलता है । समाज की शक्ति उसे अधिक सुख की प्राप्ति कराने में सहायक होती है । मनुष्य बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक समाज पर आश्रित रहता है । वह जो कुछ सीखता है, अनुभव करता है या प्राप्त करता है, उसका आधार समाज ही होता है । व्यक्ति समाज का एक अंग है जो समाज के द्वारा पोपित होता है । व्यक्ति का जो स्वरूप बनता है वह उसका अपना रूप नहीं है और अगर है तो बहुत थोड़ा-सा, अधिकतर समाज का ही दिया हुआ रूप होता है । समाज यदि जननी है तो व्यक्ति उसका बालक । जिस प्रकार बालक माता-पिता के गुणों को संचित कर विकसित होता है, उसी प्रकार व्यक्ति समाज के गुणों को संचित कर भविष्य के अनुरूप बनता है । मेढ़क का बच्चा मेढ़कों-सा ही व्यवहार सीखता है और मेढ़कों के ही समाज में रहना चाहता है । वह उनसे कभी अलग हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार व्यक्ति अपने जीवन में सब कुछ समाज से ही सीखता है और उसी जैसा व्यवहार करता है । उसके किसी व्यवहार को हम असामाजिक व्यवहार नहीं कह सकते, क्योंकि वह समाज का ही बनाया हुआ है और उसके उचित या अनुचित कार्यों का उत्तरदायित्व भी उसी समाज पर है जिसका वह एक अंग है ।
जब व्यक्ति समाज का ही बनाया हुआ है, समाज पर ही आश्रित रहता है तब यह कहा जा सकता है कि उसे अपनी सारी शक्ति समाज के हित तथा प्रगति के लिए प्रयोग करनी चाहिए । यही उचित है और न्याय-संगत भी । जब हम किसी से लेते हैं, तो उतना ही उसे देना भी चाहिए । अगर यह ठीक है तो व्यक्ति समाज को वही दे सकता है जो उसने पाया है । कलुषित समाज में पैदा हुआ तथा पला-पोसा व्यक्ति समाज को कालिमा ही देगा, यह स्वाभाविक है । मेढ़क मेढ़कों से पैदा होकर तथा तालाब के वातावरण में रहकर वही कार्य करेगा जो अन्य मेढ़क करते हैं, और जो तालाब के वातावरण में हो सकता है । मेढ़क न घड़ियाल बन सकता है, न तालाब के वातावरण में स्वच्छ कमल । उसका पाचरण सदैव मेढ़कों का-सा ही होगा । परन्तु मेढ़क और मनुष्य में अन्तर माना गया है । अन्तर है मस्तिष्क का । मस्तिष्क की शक्ति अपार है, कल्पना से भी अधिक । परन्तु मनुष्य का मस्तिष्क भी मनुष्य का ही मस्तिष्क है, उसी दायरे में है,