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कला और समाज

मनुष्य संसार में आते ही यह अनुभव करता है कि उसके सम्मुख दो वस्तुएँ हैं - एक वह स्वयं, दूसरा उसके अतिरिक्त यह पूरा संसार। अतः संसार में आकर वह जो कुछ भी करता है, उसका सम्बन्ध इन्हीं दोनों से रहता है। इसे हम यों समझा सकते हैं कि संसार में दो पक्ष हैं एक मनुष्य और दूसरे उसके अतिरिक्त और सभी पदार्थ। इन दोनों पक्षों का सम्पर्क तथा संघर्ष सदैव चलता रहता है। इसमें सभी प्राणियों को फँसना पड़ता है। इस प्रकार यह समझना आवश्यक हो जाता है कि ये दोनों परस्पर एक साथ कैसे रह सकते हैं। इसके लिए कई मार्ग हो सकते हैं। एक तो यह कि प्राणी संसार के अनुसार चले या कार्य करे, दूसरा यह कि वह संसार के विपरीत चले, तीसरा यह कि अपनी शक्ति से संसार को अपने मार्ग पर चलने को बाध्य करे, चौथा यह कि वह स्वतः भी चलता जाय और औरों को भी चलने दे, या स्वतः न चले और संसार को भी न चलने दे, या स्वयं अपने चले संसार को न चलने दे। इनमें से मनुष्य कोई भी मार्ग चुन सकता है और उसी के अनुसार कार्य कर सकता है। पर यह सत्य है कि वह और उसके अतिरिक्त संसार दोनों हैं। एक नहीं, दो हैं।

प्रत्येक मनुष्य उपर्युक्त मार्गों में से कोई न कोई मार्ग अवश्य अपनाता है, उसी के अनुसार चलता है या कार्य करता है और वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। ये मार्ग संसार के प्रत्येक कार्य में प्रयुक्त होते हैं। कला भी एक कार्य है और उसमें भी यही मार्ग है। इन सभी का लक्ष्य आत्मिक सुख या आनन्द है। इनमें से किसी को भी अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये सभी मार्ग है। किसी को कोई प्रिय लगता है, किसी को कोई। इसलिए यह निर्धारित करना कि कला का क्या मार्ग होगा अत्यन्त कठिन है। आत्मिक सुख लक्ष्य है, और यह इनसे प्राप्त हो सकता है। परन्तु यदि हम यह विश्वास करते हैं कि दो नहीं एक हैं, तो हमारी समस्या बहुत ही सीधी हो जाती है अर्थात् यदि हम यह विश्वास करते हैं कि मनुष्य अकेले कुछ नहीं है, उसमें और उसके अतिरिक्त वस्तुओं में कोई अन्तर नहीं है, या वे दोनों एक ही हैं तो सब झगड़ा समाप्त हो जाता है, मार्ग सुगम हो जाता है। ऐसी स्थिति में एक ही मार्ग हो सकता है। वह है-एक और दो में सामंजस्य स्थापित