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पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/५६

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कला और समाज


जिस मनुष्य में कला के प्रति रुचि तथा रसास्वादन करने की क्षमता नहीं है वह कला का आनन्द प्राप्त ही नहीं कर सकता और यह भी सत्य है कि हजार में शायद एक व्यक्ति मिले जो अपने में यह दोनों क्षमता न समझता हो। तब हमारे समाज में कला का महत्त्व क्यों नहीं है, समझ में नहीं आता। परन्तु उपर्युक्त पंक्तियों को अगर हम ध्यान में लायें तो ज्ञात होगा कि हममें रुचि तो है, परन्तु उसका रूप विकृत हो गया है। उसका रूप इतना विकृत है कि यदि हम इस रुचि को अरुचि से सम्बोधित करें तो बुरा न होगा या हम इसे कलुषित रुचि कह सकते है।

इसका मुख्य कारण हमारी मानसिक तथा हार्दिक जटिलता है। न हमारा मस्तिष्क ही शुद्ध है, न हृदय ही। सच कहा जाय तो आज के युग में हृदय के गुणों का कार्य ही नहीं होता। जिस प्रकार कुएँ से पानी खींचना जब काफी दिनों तक बन्द रहता है तो उस कुएँ के स्रोत सूख जाते हैं, या बन्द हो जाते हैं, उसी प्रकार हमारे हृदय के स्रोत सूख चुके हैं, उनमें अपना कार्य करने की क्षमता ही नहीं रह गयी। जब मनुष्य का व्यवहार अति मानसिक या मशीन की भाँति हो जाता है, तब हृदय की भी यही स्थिति होती है आधुनिक समाज यूरोपीय मशीन युग से प्रभावित है, और यह स्थिति उसके फलस्वरूप है। यह स्थिति तन तक रहेगी जब तक भारतीय समाज अपनत्व को नहीं प्राप्त करता, जब तक वह अपने जीवन को सरल और स्वच्छ नहीं बनाता।

जब समाज की रुचि विकृत हो जाती है तो कलाकार के सामने यह प्रश्न उठता है कि वह इस स्थिति में क्या करे। ऐसी स्थिति में न तो उसकी कला को सम्मान मिलता है और न समाज ही उसकी कला से लाभ उठा पाता है। कला का समाज में कोई स्थान नहीं होता और कला जीवित नहीं रह सकती। जब कलाकार तथा समाज की रुचि में सामजस्य होता है, तभी कला का जीवन में समाज के लिए कोई महत्त्व होता है। प्रश्न यह है कि ऐसे दूषित वातावरण में कला जीवित ही कैसे रहे? कला का ह्रास होने लगता है। कला के बिना समाज प्राणविहीन हो जाता है और समाज के बिना कला पनप ही नहीं सकती। फिर प्रश्न उठता है कि कौन किसका सुधार करे, कला समाज को ऊपर उठाये या समाज कला को? यह प्रश्न जटिल है। गिरा हुआ समाज, विकृत समाज अपनी कला को कैसे ऊपर उठा सकता है? और कला जो समाज की रुचि पर आधारित है, समाज को कैसे ऊपर उठाये। यह एक पहेली-सी दीख पड़ती है, परन्तु इस पहेली का हल इतना सरल है कि इसका उत्तर बच्चों के एक खेल "सी-सा" (ढेंकी) से बड़ी आसानी से दिया जा सकता है। इस खेल में एक धुरी के ऊपर एक पटरा रखा होता है। दोनों ओर एक-एक बालक बैठता है। एक तरफ का बालक बैठे-बैठे अपनी तरफ तख्ते को दबाता है और पटरे के दूसरी