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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

तरफ बैठा बालक ऊपर उठ जाता है। फिर ऊपर उठा बालक अपनी तरफ जोर से दबाता है और दूसरी तरफ का बालक ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार एक दूसरे को ऊपर उठाता रहता है। अपने गिरकर दूसरे को उठाता है। यही तरीका कला और समाज का है। कला अपने गिरकर समाज को उठाती है, समाज अपने गिरकर कला को उठाता है। यहाँ कला के गिरने का तात्पर्य यह है कि वह समाज के धरातल पर आती है, अर्थात् समाज की क्षमता तथा योग्यता के अनुसार अपना रूप धारण करती है और तब समाज को उठाती है। इसी प्रकार समाज अपनी कला के लिए बलिदान करता है, उसे ऊपर उठाने के लिए। तात्पर्य यह है कि कला समाज की रुचि के अनुसार नीचे आकर भी उसे ऊपर उठाती है और समाज गिरते-गिरते अपनी कला को उठाता है। इस प्रकार कला की रुचि के साथ समाज का सामंजस्य होता है। कला समाज के लिए है और समाज कला के लिए है।