सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

कला और सौन्दर्य'

सुन्दरता किसी न किसी रूप में सबको भाती है. पर सुन्दरता किसे कहते हैं इसमें बहुत मतभेद है। इतनी साधारण बात पर इतना मतभेद ! हमारी प्राचीन सभ्यता यही बताती है कि सुन्दर वही हो सकता है जो सत्य है और शिव है। सुन्दरता किसमें है यह जानने के लिए सत्य और शिव को भी पहचानना पड़ेगा। मान लीजिए, हम सौन्दर्य को पहचानना चाहते हैं, तो पहले सत्य और शिव को जानना पड़ेगा। सौन्दर्य को तो लोग अपने इच्छानुसार पहचान लेते हैं, पर सत्य क्या है, यह उससे बहुत टेढ़ा तथा सूक्ष्म प्रश्न है। जो हमें भाता है उसी में हम सौन्दर्य पा लेते हैं, पर सत्य की क्या पहचान? सत्य तो कई नहीं होता, एक होता है। वह एक क्या है? यह बड़ा भारी प्रश्न है। इसको हल करने में सारा संसार निरन्तर लगा है, पर आज भी सत्य की व्याख्या करना कठिन है। कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। अब आपको शिव समझना है। शिव तभी समझा जा सकता है जब सौन्दर्य और सत्य को आप पहले ही समझ चुके हों, अन्यथा नहीं। अर्थात् एक को समझने के लिए इससे भी कठिन दो को और समझना है। फिर भी प्रश्न हल नहीं होता। एक पहेली है। सौन्दर्य को समझने के लिए सत्य तथा शिव को समझना पड़ेगा यानी दो को, और जब आप सौन्दर्य को समझने के लिए सत्य को समझना चाहें तो फिर वही प्रश्न कि सौन्दर्य तथा शिव को आप पहले समझें तब सत्य समझ में आयेगा। अर्थात् प्रश्न कभी हल नहीं हो सकता।

इसी प्रश्न पर दूसरे ढंग से भी विचार किया जा सकता है। सत्य, शिव तथा सौन्दर्य में से किसी को भी यदि हम समझते हों तो अन्य दो हम अपने-आप समझ जायेंगे। यह बात भी जरा कठिन ही है। सत्य, शिव तथा सौन्दर्य इनमें से एक भी ऐसा नहीं जो जल्दी अपनी पीठ पर हाथ रखने दे। तीनों शब्द ऐसे हैं जिनकी व्याख्या आज तक कोई ऐसी नहीं कर सका जो सर्वमान्य हो, अर्थात् तीनों शब्द रहस्यात्मक हैं और धीरे-धीरे यही धारणा बनती जा रही है। फिर भी एक बात तो साफ है कि इस रहस्य को प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी बुद्धि से कुछ न कुछ समझता है और उसी को सही समझता है। इसका प्रमाण यही