है कि सदियों से अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी धारणाएँ प्रस्तुत की हैं जो हजारों हैं । इसलिए हम भी अपनी बुद्धि से इसका निर्णय कर सकते है ।
यहाँ पर हमें सौन्दर्य ही समझना है । अन्य दोनों शब्दों को हम छोड़ देते हैं ।
सौन्दर्य को विद्वान् आन्तरिक चेतना मानते हैं । सौन्दर्य वस्तु में नहीं होता बल्कि दर्शक के मन में होता है । सौन्दर्य बाह्य रूप में नहीं होता। हम यह नहीं कह सकते कि बिना मस्तिष्क के कोई वस्तु सुन्दर हो सकती है । यदि हम ऐसा कहने की चेष्टा करते हैं तो हमें सौन्दर्य का एक निश्चित मापदण्ड प्रस्तुत करना होगा जिसके द्वारा हम संसार की सभी वस्तुओं का सौन्दर्य अलग-अलग तौल सकें। और इसका तात्पर्य यह होगा कि कला को हमें विज्ञान के धरातल पर रखना होगा।
बहुत से आधुनिक कलाकारों ने यह बार-बार साबित किया है, कि जिन वस्तुओं को हम असुन्दर समझते रहे हैं, वे भी चित्र के रूप में निर्मित होने पर सुन्दरता बिखेरती हैं। यह बात साहित्यकारों ने भी मानी है । तभी तो किसान, मजदूर, लंगड़े, लूले, विकृत, भुखमरों के चित्रों का बनाना भी प्रारम्भ हो सका। कलाकार देवीप्रसाद राय चौधरी के द्वारा निर्मित चित्र 'आँधी में कौवा' एक सफल कलाकृति समझा जा सका। विख्यात डच कलाकार रेम्ब्रां ने एक चित्र चमड़ा उतारे हुए भैसे का बनाया है जो अन्धेरे में लटक रहा है । यह चित्र उसके उत्तम चित्रों में से एक है और प्रकाश और छाया के संयोजन की दृष्टि से एक अद्भुत सुन्दर चित्र है। स्पैनिश विख्यात चित्रकार वेलास्काज ने एक अभूतपूर्व चित्र पानी में रहनेवाले गन्दे बौने का बनाया है । यह चित्र भी एक बेजोड़ तथा मान्यताप्राप्त चित्र है । इससे यह साफ जाहिर है कि चित्र की सुन्दरता वस्तु में नहीं होती और न उसका उपयोगिता से सम्बन्ध है, न ही नैतिकता या दार्शनिकता से उसका सम्बन्ध है । इतना ही नहीं, जिस वस्तु को हम असुन्दर कहते हैं उसे चित्रकार अपना मनोबल देकर, रुचि देकर, अपनी कार्य-कुशलता से उसमें भी सौन्दर्य दिखा देता है । इस प्रकार एक तरह से कलाकार ने साबित कर दिया कि कोई भी वस्तु असुन्दर नहीं है । हमारे दृष्टिकोण का अन्तर है । परन्तु फिर भी साधारण दृष्टि में तो असुन्दरता हमें दिखाई ही पड़ती है और बहुत-सी वस्तुएँ हमें सुन्दर भी लगती हैं। यही कारण है कि हम सदैव अपने कार्यों को, वातावरण को, सुन्दर बनाने में प्रयत्नशील रहते हैं अर्थात् असुन्दरता से सुन्दरता की ओर प्रयत्नशील हैं। कलाकार इस कार्य में दक्ष होता है। एक प्रकार से वह समाज का पथ-प्रदर्शक है कि असुन्दर को सुन्दर कैसे बनाया जाय । इसका अर्थ तो यह हुआ कि असुन्दर वस्तु भी होती है और उसे सुन्दर किया जा सकता है अर्थात् सुन्दरता या असुन्दरता बाह्य रूपों में भी होती है।