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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

रुचियों को ही अपनाता है। भय तथा घृणा की मात्रा अब कम होती जाती है और रूप की ओर वह अधिक खिंचता है। इस समय वह रूप पर विचार करना रा आरम्भ करता है और विवेक से उसका चुनाव करता है। चुनने में कुछ सिद्धान्त बनाता है। विलक्षणता यहाँ भी सबसे प्रमुख मापदंड होती है। जो रूप जितना विलक्षण होता है वही अधिक रुचिकर और सुन्दर लगता है। जो वस्तु बहुतायत में पायी जाती है, आसानी से प्राप्त हो जाती है, वह उतनी सुन्दर नहीं लगती। कमल का फूल हम रोज नहीं देखते। सरोवर के पास जाने पर नील जल के ऊपर लहराता कमल हमें सुन्दर लगता है। मोर जंगल में रहता है, और वहीं नाचता है जहाँ हम नहीं होते। यह दृश्य हमें जल्दी नहीं प्राप्त होता इसलिए इस विलक्षणता को देखने में हम रुचि लेते हैं, लालायित होते हैं और देखने पर सौन्दर्य का अनुभव प्राप्त करते हैं। मोर के पंख जिस प्रकार अलंकृत रहते हैं, वैसे दूसरे पक्षियों के नहीं, यह विलक्षणता हमें भाती है। इस प्रकार आसानी से प्राप्त न होनेवाले रूपों में हमें सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है। अर्थात् विभिन्न प्रकार के आकार, रूप, रंग जब विलक्षण ढंग से एक स्थान पर संयोजित मिलते हैं तो सौन्दर्य का बोध होता है और सुन्दरता के परखने में 'संयोजन' एक मुख्य गुण है।

कला और सौन्दर्य का सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। कला में सौन्दर्य का होना आवश्यक समझा गया है। जिसमें सौन्दर्य नहीं उसे लोगों ने कला माना ही नहीं। यदि कला रूप है तो सौन्दर्य उसका प्राण है। कुछ लोग तो कला और सौन्दर्य को एक ही रूप में देखते हैं और कला को सौन्दर्य समझते हैं। कला की परिभाषा बताते हुए लिखा गया है कि किसी कार्य को सुन्दरता के साथ करना ही कला है।

कार्य तो इस संसार में सभी करते हैं चाहे मनुष्य हो, पशु हो, पक्षी हो या कोई अन्य जीवधारी। पर क्या सभी अपना कार्य सुन्दरता के साथ करते हैं? यह प्रश्न विचारणीय है। पशु-पक्षी भी अपना कार्य करते हैं। नके अधिकतर कार्य भूख, प्यास, आश्रय तथा काम से सम्बन्धित रहते हैं। मनुष्य के भी यही कार्य है। मनुष्य तथा जानवरों में केवल यही अन्तर समझा जाता है कि मस्तिष्क जानवरों में नहीं होता। यह अन्तर बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है, जिसके कारण जानवरों के कार्य में और मनुष्य के कार्यों में बड़ी विभिन्नता हो जाती है। इसलिए जानवरों के कार्य कला हैं और उनमें सुन्दरता है या नहीं, यह विचार स्थगित करना पड़ेगा क्योंकि हमें तो मनुष्य की कलाओं से तात्पर्य है।

मनुष्य के सभी कार्य मस्तिष्क के सहारे होते हैं, परन्तु उसके सभी कार्यों को कलाओं में स्थान नहीं दिया जाता, जैसे स्वप्न देखना, सांस लेना इत्यादि। इतना ही नहीं, ललित कलाओं की परिधि तो और भी संकीर्ण है। इनमें तो केवल संगीत, काव्य, चित्र, मूर्ति