पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८१
चित्रकला

उसके सफल संयोजन का तो इतना मूल्य है कि वह परिस्थिति निर्माण करके जगद्व्यापी भावना से एक-एक प्राणी का अन्तःकरण भर कर शील और श्रद्धा को हृदय में बैठा दे।

चित्र-संयोजन का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग लक्षणात्मक संयोजन भी होता है। एक वयोवृद्धा सिर पर गट्टर का भार लिये, हाथ में भग्न लकुटि के सहारे निर्जन पथ पर, ठूंठ के समीप से गोधूलि के लड़खड़ाते अंशुमाली के साथ पग मिलाती हुई चित्रित की गयो है। चित्र का शीर्षक है ‘पथिक की सन्ध्या’। इस चित्र में वयोवृद्धा के सिर का बोझ उसके जीवन का बोझ लक्षित कराता है, भग्न-दंड खण्डित सुहाग, शुष्क-वृक्ष जीवन की नश्वरता का संदेश और लड़खड़ाते पग बुद्धि के ह्रास की व्यञ्जना कराते हैं। सरस-तरु तथा बाल-रवि के माध्यम से चित्र-संयोजन का वह अभीष्ट भाव लक्षित करने में हम सर्वथा असफल सिद्ध होंगे, जिसका वर्णन अभी कर आये हैं।

चित्र-संयोजन कभी-कभी इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, जब हम उसे वैज्ञानिक ढंग से चित्रित करते हैं। इसके और भी प्रकार होते हैं जिनकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी। प्रारंभिक अवस्थाएँ क्या है, जिनके आधार पर रुचिकर संयोजन किया जाता है। हमने अपनी बैठक के सामने एक उपवन लगाने के लिए माली से आग्रह किया। वह सम्पूर्ण भूमि गोड़कर, कहीं आलू, कहीं सेम और अस्त-व्यस्त ढंग से यत्रतत्र फूलों की क्यारियाँ बना देता है। यहाँ सम्भवतः प्रश्न उठता है कि इसमें आने-जाने का मार्ग कहाँ है? केशर, गुलाब की क्यारियों में पहुँच कर उनके सरस-रस का गन्धपान करने का स्थान कहाँ है? माली का ध्यान अपनी संयोजन-विहीनता की ओर आता है, और उसे भलीभाँति ज्ञात हो जाता है कि वह अपना काम उचित ढंग से करना नहीं जानता। एक दूसरा चित्र है “गाँव के निकटवर्ती खेतों का चित्रण”। चित्रकार कागज को गाँव के घरों और पेड़ों से इस प्रकार भर देता है कि खेत बनाने का स्थान कागज में नहीं के बराबर बच पाता है। इस प्रकार यदि प्रबन्ध की एक पूर्व निश्चित बाह्य रूपरेखा स्थिर किये बिना ही चित्र-संयोजन किया जाय तो निस्संदेह वह एक हँसने-हँसाने की ही वस्तु होगी। अतः सफल चित्रांकन में संयत तथा सुन्दर प्रबन्ध की कल्पना नितान्त आवश्यक होती है। यह सब तभी संभव है जब हमें संयोजन-सिद्धान्त का पूर्ण ज्ञान हो।

कतिपय विद्वानों तथा कलाकारों के विचार से सफल-संयोजन की भावना विशेष अध्ययन बिना ही क्रमशः स्वतः उत्पन्न हो जाती है। उन्हें भय है कि संयोजन के निश्चित निष्कर्ष कठोर नियमों में परिणत होकर कलाकार के चित्रों की स्वाभाविकता तथा