संगीत-संसार के अमर कलाकार तानसेन में क्या विशेषता थी, जो अपने संगीत के प्रभाव से मदान्ध दिग्गजों को भी टस से मस नहीं होने देता था, रुग्ण हृदयों को स्वास्थ्य-दान देता था, बुझे दीपों को ज्योति-दान करता था और शून्य नभमण्डल में मेघमालाएँ बुलाकर अजस्र-रसधार से संतप्त हृदयों को रससिक्त करता था। इसका रहस्य क्या था? कहना न होगा कि वह था उसका एक प्रौढ़ और संयत स्वर-संयोजन-सिद्धान्त। चित्रकला लोक में ऐसा चमत्कार और कहीं नहीं मिला, इसका कारण स्पष्ट है कि चित्र-कलागत रूप-रंग-संयोजन परिपक्व न हो पाया। यदि हमें भारतीय चित्रकला के वास्तविक रूप का दिग्दर्शन करना है, उसे जीवन के उच्च दर्श की वस्तु बनाना है, तो हमें संयोजन के सुगम तथा शुद्धतम सिद्धान्तों का अन्वेषण करना होगा। चित्रकला तभी सार्थक होकर समाज का कल्याण कर सकेगी। खेद का विषय है कि इस प्रकार के बहुत ही कम सिद्धान्त हमें ज्ञात हैं और हमारा पौराणिक साहित्य भी इस सम्बन्ध में प्रायः मौन है। ऐसी परिस्थिति में भावी चित्रकार ही सिद्धान्तों का अनुसंधान कर चित्रकला में पथ-निर्देशन के लिए उत्तरदायी है।
‘संयोजन’ प्रबन्ध का ही दूसरा नाम है या इसे निबन्ध भी कह सकते हैं। कभी एक वस्तु का और कभी कई वस्तुओं का संयोजन किया जाता है। एक कमरे में एक मेज अलंकरण की दृष्टि से रखना है, यह एक वस्तु का संयोजन है। यदि एक मेज, चार कुर्सी, एक रेडियो और एक आलमारी किसी कमरे में सुसज्जित करना है, तो यह कई वस्तुओं का संयोजन होगा। इन सभी वस्तुओं को कमरे में अस्त-व्यस्त छोड़ देने से कमरे का स्वाभाविक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। अधिकांश वस्तुओं का उपयोग आवश्यकतानुसार भी हुआ करता है। ऐसा देखा गया है कि लोग वातायन के सन्निकट ही मेज व्यवस्थित करते हैं, जिससे मंद-मंद शीतल गन्धवाहक वायु का आनन्द मिलता रहे। उससे लगा आलमारी का क्रम रहता है, जहाँ से वस्तुएं सरलता से आवश्यकतानुसार बाहर-भीतर कर सकें। समीप में ही इसकी ओर निद्रा-देवी के आतिथ्य-सत्कार के लिए पलंग सुसज्जित रहता है। उसके निम्न भाग में मक्खियों के सहभोज के लिए पीकदान और वहीं पार्श्व में भोजन के व्यञ्जनों से भरा थाल । यह है एक आलस्य-पूर्ण संयोजन सिद्धान्त, जहाँ न स्वास्थ्य का ही हित-चिंतन है और न तो आत्मिक आनन्द का ही। आगन्तुक के लिए तो एक क्षण एक युग हो जाता है । इस प्रकार के अस्त-व्यस्त संयोजित चित्र अथवा कुप्रबन्ध से निर्मित चित्रों को देखकर, हमारे मनोभाव हमें बाध्य करते हैं कि उन चित्रों को हम नष्ट कर दें। इन चित्रों से आत्मरञ्जन तो दूर रहा, इन्हें देखकर एक प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है। चित्रांकन का उद्देश्य है आत्म-संतुष्टि और